Quantcast
Channel: बना रहे बनारस
Viewing all 165 articles
Browse latest View live

रानी केतकी की कहानी

$
0
0
सैयद इंशा अल्ला खां
यह वह कहानी है कि जिसमें हिंदी छुट।
और न किसी बोली का मेल है न पुट॥


सिर झुकाकर नाक रगडता हूं उस अपने बनानेवाले के सामने जिसने हम सब को बनाया और बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया। आतियां जातियां जो साँ सें हैं, उसके बिन ध्यान यह सब फाँ से हैं। यह कल का पुतला जो अपने उस खिलाडी की सुध रक्खे तो खटाई में क्यों पडे और कडवा कसैला क्यों हो। उस फल की मिठाई चक्खे जो बडे से बडे अगलों ने चक्खी है। देखने को दो आँखें दीं ओर सुनने को दो कान। नाक भी सब में ऊँची कर दी मरतों को जी दान।।


मिट्टी के बसान को इतनी सकत कहाँ जो अपने कुम्हार के करतब कुछ ताड सके। सच हे, जो बनाया हुआ हो, सो अपने बनाने वाले को क्या सराहे और क्या कहें। यों जिसका जी चाहे, पडा बके। सिर से लगा पांव तक जितने रोंगटे हैं, जो सबके सब बोल उठें और सराहा करें और उतने बरसों उसी ध्यान में रहें जितनी सारी नदियों में रेत और फूल फलियां खेत में हैं, तो भी कुछ न हो सके, कराहा करें। इस सिर झुकाने के साथ ही दिन रात जपता हूं उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को जिसके लिए यों कहा है- जो तू न होता तो मैं कुछ न बनाता; और उसका चचेरा भाई जिसका ब्याह उसके घर हुआ, उसकी सुरत मुझे लगी रहती है। मैं फूला अपने आप में नहीं समाता, और जितने उनके लडके वाले हैं, उन्हीं को मेरे जी में चाह है। और कोई कुछ हो, मुझे नहीं भाता। मुझको उम्र घराने छूट किसी चोर ठग से क्या पडी! जीते और मरते आसरा उन्हीं सभों का और उनके घराने का रखता हूं तीसों घडी।


 डौल डाल एक अनोखी बात का एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान में चढी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदणी छुट और किसी बोली का पुट न मिले, तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले। बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो। अपने मिलने वालों में से एक कोई पढे-लिखे, पुराने-धुराने, डाँग, बूढे धाग यह खटराग लाए। सिर हिलाकर, मुंह थुथाकर, नाक भी चढाकर आंखें फिराकर लगे कहने -  यह बात होते दिखाई नहीं देती। हिंदणीपन भी निकले और भाखापन भी न हो। बस जैसे भले लोग अच्छे आपस में बोलते चालते हैं, ज्यों का त्यों वही सब डौल रहे और छाँह किसी की न हो, यह नहीं होने का। मैंने उनकी ठंडी साँस का टहोका खाकर झुंझलाकर कहा- मैं कुछ ऐसा बढ-बोला नहीं जो राई को परबत कर दिखाऊं, जो मुझ से न हो सकता तो यह बात मुँह से क्यों निकलता? जिस ढब से होता, इस बखेडे को टालता। इस कहानी का कहने वाला यहाँ आपको जताता है और जैसा कुछ उसे लोग पुकारते हैं, कह सुनाता है। दहना हाथ मुँह फेरकर आपको जताता हूँ, जो मेरे दाता ने चाहा तो यह ताव-भाव, राव-चाव और कूंद-फाँद, लपट झपट दिखाऊँ जो देखते ही आपके ध्यान का घोडा, जो बिजली से भी बहुत चंचल अल्हडपन में है, हिरन के रूप में अपनी चौकडी भूल जाए। टुक घोडे पर चढ के अपने आता हूं मैं। करतब जो कुछ है,कर दिखाता हूं मैं॥ उस चाहने वाले ने जो चाहा तो अभी। कहता जो कुछ हूं। कर दिखाता हूं मैं॥ अब आप कान रख के, आँखें मिला के, सन्मुख होके टुक इधर देखिए, किस ढंग से बढ चलता हूं और अपने फूल के पंखडी जैसे होंठों से किस-किस रूप के फूल उगलता हूँ।


कहानी के जीवन का उभार और बोलचाल की दुलहिन का सिंगार किसी देश में किसी राजा के घर एक बेटा था। उसे उसके माँ-बाप और सब घर के लोग कुंवर उदैभान करके पुकारते थे। सचमुच उसके जीवन की जोत में सूरज की एक स्त्रोत आ मिली थी। उसका अच्छापन और भला लगना कुछ ऐसा न था जो किसी के लिखने और कहने में आ सके। पंद्रह बरस भरके उसने सोलहवें में पाँव रक्खा था। कुछ यों ही सीमसें भीनती चली थीं। पर किसी बात के सोच का घर-घाट न पाया था और चाह की नदी का पाट उसने देखा न था। एक दिन हरियाली देखने को अपने घोडे पर चढ के अठखेल और अल्हड पन के साथ देखता भालता चला जाता था। इतने में जो एक हिरनी उसके सामने आई, तो उसका जी लोट पोट हुआ। उस हिरनी के पीछे सब छोड छाडकर घोडा फेंका। कोई घोडा उसको पा सकता था? जब सूरज छिप गया और हिरनी आँखों से ओझल हुई, तब तो कुंवर उदैभान भूखा, प्यासा, उनींदा, जै भाइयाँ, अँगडाइयाँ लेता, हक्का बक्का होके लगा आसरा ढूंढने। इतने में कुछ एक अमराइयां देख पडी, तो उधर चल निकला; तो देखता है वो चालीस-पचास रंडियां एक से एकजोबन में अगली झूला डाले पडी झूल रही हैं और सावन गातियां हैं। ज्यों ही उन्होंने उसको देखा - तू कौन? तू कौन? की चिंघाड सी पड गई। उन सभी में एक के साथ उसकी आँख लग गई।

कोई कहती थी यह उचक्का है। कोई कहती थी एक पक्का है। वही झूले वाली लाल जोडा पहने हुए, जिसको सब रानी केतकी कहते थीं, उसके भी जी में उसकी चाह ने घर किया। पर कहने-सुनने की बहुत सी नांह-नूह की और कहा - इस लग चलने को भला क्या कहते हैं! हक न धक, जो तुम झट से टहक पडे। यह न जाना, यह रंडियां अपने झूल रही हैं। अजी तुम तो इस रूप के साथ इस रव बेधडक चले आए हो, ठंडे ठंडे चले जाओ। तब कुंवर ने मसोस के मलीला खाके कहा -  इतनी रुखाइयां न कीजिए। मैं सारे दिन का थका हुआ एक पेड की छांह में ओसका बचाव करके पडा रहूंगा। बडे तडके धुंधलके में उठकर जिधर को मुंह पडेगा चला जाऊंगा। कुछ किसी का लेता देता नहीं।


एक हिरनी के पीछे सब लोगों को छोड छाड कर घोडा फेंका था। कोई घोडा उसको पा सकता था? जब तलक उजाला रहा उसके ध्यान में था। जब अंधेरा छा गया और जी बहुत घबरा गया, इन अमराइयों का आसरा ढूंढ कर यहां चला आया हूं। कुछ रोकटोक तो इतनी न थी जो माथा ठनक जाता और रुका रहता। सिर उठाए हां पता चला आया। क्या जानता था -  वहां पदिमिनियां पडी झूलती पेंगे चढा रही हैं। पर यों बढी थी,  बरसों मैं भी झूल करूंगा।


यह बात सुनकर वह जो लाल जोडे वाली सबकी सिरधरी थी, उसने कहा - हाँ जी, बोलियां ठोलियां न मारो और इनको कह दो जहां जी चाहे, अपने पडे रहें, ओर जो कुछ खानेको मांगें, इन्हें पहुंचा दो। घर आए को आज तक किसी ने मार नहीं डाला। इनके मुंहका डौल, गाल तमतमाए और होंठ पपडाए, और घोडे का हांफना, ओर जी का कांपना और ठंडी सांसें भरना, और निढाल हो गिरे पडना इनको सच्चा करता है। बात बनाई हुई और सचौटी की कोई छिपती नहीं। पर हमारे इनके बीच कुछ ओट कपडे लत्ते की कर दो।


इतना आसरा पाके सबसे परे जो कोने में पांच सात पौदे थे, उनकी छांव में कुंवर उदैभान ने अपना बिछौना किया और कुछ सिरहाने धरकर चाहता था कि सो रहें, पर नींद कोई चाहत की लगावट में आती थी?  पडा पडा अपने जी से बातें कर रहा था। जब रात सांय-सांय बोलने लगी और साथ वालियां सब सो रहीं,  रानी केतकी ने अपनी सहेली मदनबान को जगाकर यों कहा - अरी ओ! तूने कुछ सुना है? मेरा जी उस पर आ गया है; और किसी डौल से थम नहीं सकता। तू सब मेरे भेदों को जानती है। अब होनी जो हो सो हो; सिर रहता रहे, जाता जाय। मैं उसके पास जाती हूं। तू मेरे साथ चल। पर तेरे पांवों पडती हूं कोई सुनने न पाए। अरी यह मेरा जोडा मेरे और उसके बनाने वाले ने मिला दिया। मैं इसी जी में इस अमराइयों में आई थी। रानी केतकी मदनबान का हाथ पकडे हुए वहां आन पहुंची,  जहां कुंवर उदैभान लेटे हुए कुछ-कुछ सोच में बड-बडा रहे थे। मदनबान आगे बढके कहने लगी - तुम्हें अकेला जानकर रानी जी आप आई हैं। कुंवर उदैभान यह सुनकर उठ बैठे और यह कहा - क्यों न हो, जी को जी से मिलाप है?


कुंवर और रानी दोनों चुपचाप बैठे; पर मदनबान दोनों को गुदगुदा रही थी। होते होते रानी का वह पता खुला कि राजा जगतपरकास की बेटी है और उनकी मां रानी कामलता कहलाती है। उनको उनके मां बाप ने कह दिया है - एक महीने अमराइयों में जाकर झूल आया करो। आज वहीं दिन था;  सो तुमसे मुठभेड हो गई। बहुत महाराजों के कुंवरों से बातें आई,  पर किसी पर इनका ध्यान न चढा। तुम्हारे धन भाग जो तुम्हारे पास सबसे छुपके, मैं जो उनके लडकपन की गोइयां हूं। मुझे अपने साथ लेके आई है। अब तुम अपनी बीती कहानी कहो - तुम किस देस के कौन हो। उन्होंने कहा - मेरा बाप राजा सूरजभान और मां रानी लक्ष्मीबास हैं। आपस में जो गठजोड हो जाय तो कुछ अनोखी, अचरज और अचंभे की बात नहीं। यों ही आगे से होता चला आया है। जैसा मुँह वैसा थप्पड। जोड तोड टटोल लेते हैं। दोनों महाराजों को यह चितचाही बात अच्छी लगेगी, पर हम तुम दोनों के जी का गठजोड चाहिए। इसी में मदनबान बोल उठी - सो तो हुआ। अपनी अपनी अंगूठियां हेरफेर कर लो और आपस में लिखौती लिख दो। फिर कुछ हिचर-मिचर न रहे। कुंवर उदैभान ने अपनी अंगूठी रानी केतकी को पहना दी और रानी ने भी अपनी अंगूठी कुंवर की उंगली में डाल दी और एक धीमी सी चुटकी भी ले ली। इसमें मदनबाल बोली जो सच पूछा तो इतनी भी बहुत हुई। मेरे सिर चोट है। इतना बढ चलना अच्छा नहीं। अब उठ चलो और इनको सोने दो; और रोएं तो पडे रोने दो। बातचीत तो ठीक हो चुकी। पिछले पहर से रानी तो अपनी सहेलियों को लेके जिधर से आई थी, उधर को चली गई और कुंवर उदैभान अपने घोडे की पीठ लगाकर अपने लोगों से मिलके अपने घर पहुंचे।

कुंवर ने चुपके से यह कहला भेजा - अब मेरा कलेजा टुकडे-टुकडे हुए जाता है। दोनों महाराजाओं को आपस में लडने दो। किसी डौल से जो हो सके, तो मुझे अपने पास बुला लो। हम तुम मिलके किसी और देस निकल चलें; होनी हो सो हो, सिर रहता रहे, जाता जाय। एक मालिन, जिसको फूलकली कर सब पुकारते थे, उसने उस कुंवर की चिट्ठी किसी फूल की पंखडी में लपेट लपेट कर रानी केतकी तक पहुंचा दी। रानी ने उस चिट्ठी को अपनी आंखों से लगाया और मालिन को एक थाल भरके मोती दिए; और उस चिट्ठी की पीठ पर अपने मुंह की पीक से यह लिखा -ऐ मेरे जी के ग्राहक, जो तू मुझे बोटी बोटी कर चील-कौवों को दे डाले, तो भी मेरी आंखों चैन और कलेजे सुख हो। पर यह बात भाग चलने की अच्छी नहीं।

इसमें एक बाप-दादे के चिट लग जाती है; अब जब तक मां बाप जैसा कुछ होता चला आता है उसी डोल से बेटे-बेटी को किसी पर पटक न मारें और सिर से किसी के चेपक न दें, तब तक यह एक जो तो क्या, जो करोड जी जाते रहें तो कोई बात हैं रुचती नहीं। यह चिट्ठी जो बिस भरी कुंवर तक जा पहुंची, उस पर कई एक थाल सोने के हीरे, मोती, पुखराज के खचाखच भरे हुए निछावर करके लुटा देता है। और जितनी उसे बेचैनी थी, उससे चौगुनी पचगुनी हो जाती है और उस चिट्ठी को अपने उस गोरे डंड पर बांध लेता है। आना जोगी महेंदर गिर का कैलास पहाड पर से और कुंवर उदैभान और उसके मां-बाप को हिरनी हिरन कर डालना जगतपरकास अपने गुरू को जो कैलाश पहाड पर रहता था, लिख भेजता है- कुछ हमारी सहाय कीजिए। महाकठिन बिपताभार हम पर आ पडी है।


राजा सूरजभान को अब यहां तक वाव बॅ हक ने लिया है, जो उन्होंने हम से महाराजों से डौल किया है। सराहना जोगी जी के स्थान का कैलास पहाड जो एक डौल चाँदी का है, उस पर राजा जगतपरकास का गुरू, जिसको महेंदर गिर सब इंदरलोक के लाग कहते थे, ध्यान ज्ञान में कोई 90 लाख अतीतों के साथ ठाकुर के भजन में दिन रात लगा रहता था। सोना, रूपा, तां बे, रॉगे का बनाना तो क्या और गुटका मुंह में लेकर उड ना परे रहे, उसको और बातें इस इस ढब की ध्यान में थीं जो कहने सुनने से बाहर हैं। मेंह सोने रूपे का बरसा देना और जिस रूप में चाहना हो जाना, सब कुछ उसके आगे खेल था। गाने बजाने में महादेव जी छूट सब उसके आगे कान पकडते थे। सरस्वती जिसकी सब लोग कहते थे, उनने भी कुछ कुछ गुनगुनाना उसी से सीखा था। उसके सामने छ: राग छत्तीस रागिनियां आठ पहर रूप बंदियों का सा धरे हुए उसकी सेवा में सदा हाथ जोडे खडी रहती थीं। और वहां अतीतों को गिर कहकर पुकारते थे-भैरोगिर, विभासगिर, हिंडोलगिर, मेघनाथ, केदारनाथ, दीपकसेन, जोतिसरूप सारंगरूप। और अतीतिनें उस ढब से कहलाती थीं-गुजरी, टोडी, असावरी, गौरी, मालसिरी, बिलावली। जब चाहता, अधर में सिधासन पर बैठकर उडाए फिरता था और नब्बे लाख अतीत गुटके अपने मुंह में लिए, गेरूए वस्तर पहने, जटा बिखेरे उसके साथ होते थे। जिस घडी रानी केतकी के बाप की चिट्ठी एक बगला उसके घर पहुंचा देता है, गुरु महेंदर गिर एक चिग्घाड मारकर दल बादलों को ढलका देता है। बघंबर पर बैठे भभूत अपने मुंह से मल कुछ कुछ पढंत करता हुआ बाण घोडे भी पीठ लगा और सब अतीत मृगछालों पर बैठे हुए गुटके मुंह में लिए हुए बोल उठे - गोरख जागा और मुंछदर जागाऔर मुंछदर भागा। एक आंख की झपक में वहां आ पहुंचता है जहां दोनों महाराजों में लडाई हो रही थी। पहले तो एक काली आंधी आई; फिर ओले बरसे; फिर टिड्डी आई। किसी को अपनी सुध न रही। राजा सूरजभान के जितने हाथी घोडे और जितने लोग और भीडभाड थी, कुछ न समझा कि क्या किधर गई और उन्हें कौन उठा ले गया। राजा जगत परकास के लोगों पर और रानी केतकी के लोगों पर क्योडे की बूंदों की नन्हीं-नन्हीं फुहार सी पडने लगी। 


जब यह सब कुछ हो चुका, तो गुरुजी ने अतीतियों से कहा - उदैभान, सूरजभान, लछमीबास इन तीनों को हिरनी हिरन बना के किसी बन में छोड दो; और जो उनके साथी हों, उन सभों को तोड फोड दो। जैसा गुरुजी ने कहा, झटपट वही किया। विपत का मारा कुंवर उदैभान और उसका बाप वह राजा सूरजभान और उनकी मां लछमीबास हिरन हिरनी बन गए। हरी घास कई बरस तक चरते रहे; और उस भीड भाड का तो कुछ थल बेडा न मिला, किधर गए और कहां थे बस यहां की यहीं रहने दो। फिर सुनो। अब रानी केतकी के बाप महाराजा जगतपरकास की सुनिए। उनके घर का घर गुरु जी के पांव पर गिरा और सबने सिर झुकाकर कहा - महाराज, यह आपने बडा काम किया। हम सबको रख लिया। जो आप न पहुंचते तो क्या रहा था। सबने मर मिटने की ठान ली थी।

महाराज ने कहा - भभूत तो क्या, मुझे अपना जी भी उससे प्यारा नहीं। मुझे उसके एक पहर के बहल जाने पर एक जी तो क्या जो करोर जी हों तो दे डालें। रानी केतकी को डिबिया में से थोडा सा भभूत दिया। कई दिन तलक भी आंख मिचौवल अपने माँ-बाप के सामने सहेलियों के साथ खेलती सबको हँसाती रही, जो सौ सौ थाल मोतियों के निछावर हुआ किए, क्या कहूँ, एक चुहल थी जो कहिए तो करोडों पोथियों में ज्यों की त्यों न आ सके। रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदन बान का साथ देने से नहीं करना।


एक रात रानी केतकी उसी ध्यान में मदनबान से यों बोल उठी-अब मैं निगोडी लाज से कुट करती हूँ, तू मेरा साथ दे। मदनबान ने कहा-क्यों कर? रानी केतकी ने वह भभूत का लेना उसे बताया और यह सुनाया यह सब आँख-मिचौवल के झाई झप्पे मैंने इसी दिन के लिये कर रखे थे। मदनबान बोली-मेरा कलेजा थरथराने लगा। अरी यह माना जो तुम अपनी आँखों में उस भभूत का अंजन कर लोगी और मेरे भी लगा दोगी तो हमें तुम्हें कोई न देखेगा। और हम तुम सबको देखेंगी। पर ऐसी हम कहाँ जी चली हैं। जो बिन साथ, जोबन लिए, बन-बन में पडी भटका करें और हिरनों की सींगों पर दोनों हाथ डालकर लटका करें, और जिसके लिए यह सब कुछ है, सो वह कहाँ? और होय तो क्या जाने जो यह रानी केतकी है और यह मदनबान निगोडी नोची खसोटी उजडी उनकी सहेली है। चूल्हे और भाड में जाय यह चाहत जिसके लिए आपकी माँ-बाप को राज-पाट सुख नींद लाज छोड कर नदियों के कछारों में फिरना पडे, सो भी बेडौल। जो वह अपने रूप में होते तो भला थोडा बहुत आसरा था। ना जी यह तो हमसे न हो सकेगा। जो महाराज जगतपरकास और महारानी कामलता का हम जान-बूझकर घर उजाडें और इनकी जो इकलौती लाडली बेटी है, उसको भगा ले जायें और जहाँ तहाँ उसे भटकावें और बनासपत्ति खिलावें और अपने घोडें को हिलावें। जब तुम्हारे और उसके माँ बाप में लडाई हो रही थी और उनने उस मालिन के हाथ तुम्हें लिख भेजा था जो मुझे अपने पास बुला लो, महाराजों को आपस में लडने दो, जो होनी हो सो हो; हम तुम मिलके किसी देश को निकल चलें; उस दिन समझीं। तब तो वह ताव भाव दिखाया। अब जो वह कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप तीनों जी हिरनी हिरन बन गए। क्या जाने किधर होंगे। उनके ध्यान पर इतनी कर बैठिए जो किसी ने तुम्हारे घराने में न की, अच्छी नहीं। इस बात पर पानी डाल दो; नहीं तो बहुत पछताओगी और अपना किया पाओगी। मुझसे कुछ न हो सकेगा। तुम्हारी जो कुछ अच्छी बात होती, तो मेरे मुँह से जीते जी न निकलता। पर यह बात मेरे पेट में नहीं पच सकती। तुम अभी अल्हड हो। तुमने अभी कुछ देखा नहीं। जो ऐसी बात पर सचमुच ढलाव देखूँगी तो तुम्हारे बाप से कहकर यह भभूत जो बह गया निगोडा भूत मुछंदर का पूत अवधूत दे गया है, हाथ मुरकवाकर छिनवा लूँगी। रानी केतकी ने यह रूखाइयाँ मदनबान की सुन हँ सकर टाल दिया और कहा-जिसका जी हाथ में न हो, उसे ऐसी लाखों सूझती है; पर कहने और करने में बहुत सा फेर है। भला यह कोई अँधेर है जो माँ बाप, रावपाट, लाज छोड कर हिरन के पीछे दौडती करछालें मारती फिरूँ। पर अरी ते तो बडी बावली चिडिया है जो यह बात सच जानी और मुझसे लडने लगी। रानी केतकी का भभूत लगाकर बाहर निकल जाना और सब छोटे बडों का तिलमिलाना दस पन्द्रह दिन पीछे एक दिन रानी केतकी बिन कहे मदनबान के वह भभूत आँखों में लगा के घर से बाहर निकल गई। कुछ कहने में आता नहीं, जो मां-बाप पर हुई। सबने यह बात ठहराई, गुरूजी ने कुछ समझकर रानी केतकी को अपने पास बुला लिया होगा।


महाराज जगतपरकास और महारानी कामलता राजपाट उस वियोग में छोड छाड के पहाड की चोटी पर जा बैठे और किसी को अपने आँखों में से राज थामने को छोड गए। बहुत दिनों पीछे एक दिन महारानी ने महाराज जगतपरकास से कहा-रानी केतकी का कुछ भेद जानती होगी तो मदनबान जानती होगी। उसे बुलाकर तो पूँछो। महाराज ने उसे बुलाकर पूछा तो मदनबान ने सब बातें खोलियाँ। रानी केतकी के माँ बाप ने कहा-अरी मदनबान, जो तू भी उसके साथ होती तो हमारा जी भरता। अब तो वह तुझे ले जाये तो कुछ हचर पचर न कीजियो, उसको साथ ही लीजियो। जितना भभूत है, तू अपने पास रख। हम कहाँ इस राख को चूल्हें में डालेंगे। गुरूजी ने तो दोनों राज का खोज खोया-कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप दोनों अलग हो रहे। जगतपरकास और कामलता को यों तलपट किया। भभूत न होत तो ये बातें काहे को सामने आती। मदनबान भी उनके ढूँढने को निकली। अंजन लगाए हुए रानी केतकी रानी केतकी कहती हुई पडी फिरती थी।

फुनगे से लगा जड तलक जितने झाड झंखाडों में पत्ते और पत्ती बँधी थीं, उनपर रूपहरी सुनहरी डाँक गोंद लगाकर चिपका दिया और सबों को कह दिया जो सही पगडी और बागे बिन कोई किसी डौल किसी रूप से फिर चले नहीं। और जितने गवैये, बजवैए, भांड-भगतिए रहस धारी और संगीत पर नाचने वाले थे, सबको कह दिया जिस जिस गाँव में जहाँ हों अपनी अपनी ठिकानों से निकलकर अच्छे-अच्छे बिछौने बिछाकर गाते-नाचते घूम मचाते कूदते रहा करें। ढूँढना गोसाई महेंदर गिर का कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप को, न पाना और बहुत तलमलाना यहाँ की बात और चुहलें जो कुछ है, सो यहीं रहने दो। अब आगे यह सुनो। जोगी महेंदर और उसके 90 लाख जतियों ने सारे बन के बन छान मारे, पर कहीं कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप का ठिकाना न लगा। तब उन्होंने राजा इंदर को चिट्ठी लिख भेजी। उस चिट्ठी में यह लिखा हुआ था-इन तीनों जनों को हिरनी हिरन कर डाला था। अब उनको ढूँढता फिरता हूँ। कहीं नहीं मिलते और मेरी जितनी सकत थी, अपनी सी बहुत कर चुका हूं। अब मेरे मुंह से निकला कुँवर उदैभान मेरा बेटा मैं उसका बाप और ससुराल में सब ब्याह का ठाट हो रहा है। अब मुझपर विपत्ति गाढी पडी जो तुमसे हो सके, करो। राजा इंदर चिट्ठी का देखते ही गुरू महेंदर को देखने को सब इंद्रासन समेट कर आ पहुँचे और कहा-जैसा आपका बेटा वैसा मेरा बेटा। आपके साथ मैं सारे इंद्रलोक को समेटकर कुँवर उदैभान को ब्याहने चढूँगा। गोसाई महेंदर गिर ने राजा इंद से कहा-हमारी आपकी एक ही बात है, पर कुछ ऐसा सुझाइए जिससे कुँवर उदैभान हाथ आ जावे।

राजा इंदर ने कहा-जितने गवैए और गायनें हैं, उन सबको साथ लेकर हम और आप सारे बनों में फिरा करें। कहीं न कहीं ठिकाना लग जाएगा। गुरू ने कहा-अच्छा। हिरन हिरनी का खेल बिगडना और कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप का नए सिरे से रूप पकड ना एक रात राजा इंदर और गोसाई महेंदर गिर निखरी हुई चाँदनी में बैठे राग सुन रहे थे, करोडों हिरन राग के ध्यान में चौकडी भूल आस पास सर झुकाए खडे थे। इसी में राजा इंदर ने कहा-इन सब हिरनों पर पढ के मेरी सकत गुरू की भगत फूरे मंत्र ईश्वरोवाच पढ के एक छींटा पानी का दो। क्या जाने वह पानी कैसा था। छीटों के साथ ही कुँवर उदैभान और उसके माँ बाप तीनों जनें हिरनों का रूप छोड कर जैसे थे वैसे हो गए। गोसाई महेंदर गिर और राजा इंदर ने उन तीनों को गले लगाया और बडी आवभगत से अपने पास बैठाया और वही पानी घडा अपने लोगों को देकर वहाँ भेजवाया जहाँ सिर मुंडवाते ही ओले पडे थे। राजा इंदर के लोगों ने जो पानी की छीटें वही ईश्वरोवाच पढ के दिए तो जो मरे थे सब उठ खडे हुए; और जो अधमुए भाग बचे थो, सब सिमट आए। राजा इंदर और महेंदर गिर कुँवर उदैभान और राजा सूरजभान और रानी लक्ष्मीबास को लेकर एक उड न-खटोलो पर बैठकर बडी धूमधाम से उनको उनके राज पर बिठाकर ब्याह का ठाट करने लगे। पसेरियन हीरे-मोती उन सब पर से निछावर हुए।


राजा सूरजभान और कुँवर उदैभान और रानी लछमीबास चितचाही असीस पाकर फूली न समाई और अपने सो राज को कह दिया-जेवर भोरे के मुंह खोल दो। जिस जिस को जो जा उकत सूझे, बोल दो। आज के दिन का सा कौन सा दिन होगा। हमारी आँखों की पुतलियों से जिससे चैन हैं, उस लाडले इकलौते का ब्याह और हम तीनों का हिरनों के रूप से निकलकर फिर राज पर बैठना। पहले तो यह चाहिए जिन जिन की बेटियाँ बिन ब्याहियाँ हों, उन सब को उतना कर दो जो अपनी जिस चाव चीज से चाहें; अपनी गुडियाँ सँवार के उठावें; और तब तक जीती रहें, सब की सब हमारे यहाँ से खाया पकाया रींधा करें। और सब राज भर की बेटियाँ सदा सुहागनें बनी रहें और सूहे रातें छुट कभी कोई कुछ न पहना करें और सोने रूपे के केवाड गंगाजमुनी सब घरों में लग जाएँ और सब कोठों के माथे पर केसर और चंदन के टीके लगे हों। और जितने पहाड हमारे देश में हों, उतने ही पहाड सोने रूपे के आमने सामने खडे हो जाएँ और सब डाँगों की चोटियाँ मोतियों की माँग ताँगे भर जाएँ; और फूलों के गहने और बँ धनवार से सब झाड पहाड लदे फँदे रहें; और इस राज से लगा उस राज तक अधर में छत सी बाँध दो। और चप्पा चप्पा कहीं ऐसा न रहें जहाँ भीड भडक्का धूम धडक्का न हो जाय। फूल बहुत सारे बहा दो जो नदियाँ जैसे सचमुच फूल की बहियाँ हैं यह समझा जाय। और यह डौल कर दो, जिधर से दुल्हा को ब्याहने चढे सब लाड ली और हीरे पन्ने पोखराज की उमड में इधर और उधर कबैल की टट्टियाँ बन जायँ और क्यारियाँ सी हो जायें जिनके बीचो बीच से हो निकलें। और कोई डाँग और पहाडी तली का चढाव उतार ऐसा दिखाई न दे जिसकी गोद पंखुरियों से भरी हुई न हों।

इस धूमधाम के साथ कुँवर उदैभान सेहरा बाँधे दूल्हन के घर तक आ पहुँचा और जो रीतें उनके घराने में चली आई थीं, होने लगियाँ। मदनबान रानी केतकी से ठठोली करके बोली-लीजिए, अब सुख समेटिए, भर भर झोली। सिर निहुराए, क्या बैठी हो, आओ न टुक हम तुम मिल के झरोखों से उन्हें झाँकें। रानी केतकी ने कहा-न री, ऐसी नीच बातें न कर। हमें ऐसी क्या पडी जो इस घडी ऐसी झेल कर रेल पेल ऐसी उठें और तेल फुलेल भरी हुई उनके झाँकने को जा खडी हों। बदनबान उसकी इस रूखाई को उड नझाई की बातों में डालकर बोली- बोलचाल मदनबान की अपनी बोली के दोनों में- यों तो देखो वाछडे जी वा छडे जी वा छडे। हम से जो आने लगी हैं आप यों मुहरे कडे॥ छान मारे बन के बन थे आपने जिनके लिये। वह हिरन जीवन के मद में हैं बने दूल्हा खडे॥ तुम न जाओ देखने को जो उन्हें क्या बात है। ले चलेंगी आपको हम हैं इसी धुन पर अडे। है कहावत जी को भावै और यों मुडिया हिले। झांकने के ध्यान में उनके हैं सब छोटे बडे।। साँस ठंडी भरके रानी केतकी बोली कि सच। सब तो अच्छा कुछ हुआ पर अब बखेडे में पडे॥ वारी फेरी होना मदनबान का रानी केतकी पर और उसकी बास सूँघना और उनींदे पन से ऊंघना उस घडी मदनबान को रानी केतकी का बादले का जूडा और भीना भीनापन और अँखडियों का लजाना और बिखरा बिखरा जाना भला लग गया, तो रानी केतकी की बास सँूघने लगी और अपनी आँखों को ऐसा कर लिया जैसे कोई ऊँघने लगता है। सिर से लगा पाँव तक वारी फेरी होके तलवे सुहलाने लगी। तब रानी केतकी झट एक धीमी सी सिसकी लचके के साथ ले ऊठी : मदनबान बोली-मेरे हाथ के टहोके से, वही पांव का छाला दुख गया होगा जो हिरनों की ढूँढने में पड गया था। इसी दु:ख की चुटकी से रानी केतकी ने मसोस कर कहा-काटा अडा तो अडा, छाला पडा तो पडा, पर निगोडी तू क्यों मेरी पनछाला हुई।


सराहना रानी केतकी के जोबन का केतकी का भला लगना लिखने पढने से बाहर है। वह दोनों भैवों का खिंचावट और पुतलियों में लाज की समावट और नुकीली पलकों की रूँ धावट हँसी की लगावट और दंतडियों में मिस्सी की ऊदाहट और इतनी सी बात पर रूकावट है। नाक और त्योरी का चढा लेना, सहेलियों को गालियाँ देना और चल निकलना और हिरनों के रूप में करछालें मारकर परे उछलना कुछ कहने में नहीं आता। सराहना कुँवर जी के जोबन का कुँवर उदैभान के अच्छेपन का कुछ हाल लिखना किससे हो सके। हाय रे उनके उभार के दिनों का सुहानापन, चाल ढाल का अच्छन बच्छन, उठती हुई कोंपल की काली फबन और मुखडे का गदराया हुआ जोबन जैसे बडे तड के धुंधले के हरे भरे पहाडों की गोद से सूरज की किरनें निकल आती हैं। यही रूप था। उनकी भींगी मसों से रस टपका पडता था। अपनी परछाँई देखकर अकडता जहाँ जहाँ छाँव थी, उसका डौल ठीक ठीक उनके पाँव तले जैसे धूप थी। दूल्हा का सिंहासन पर बैठना दूल्हा उदैभान सिंहासन पर बैठा और इधर उधर राजा इंदर और जोगी महेंदर गिर जम गए और दूल्हा का बाप अपने बेटे के पीछे माला लिये कुछ गुनगुनाने लगा। और नाच लगा होने और अधर में जो उड न खटोले राजा इंदर के अखाडे के थे। सब उसी रूप से छत बाँधे थिरका किए। दोनों महारानियाँ समधिन बन के आपस में मिलियाँ चलियाँ और देखने दाखने को कोठों पर चन्दन के किवाडों के आड तले आ बैठियाँ। सर्वाग संगीत भँड ताल रहस हँसी होने लगी। जितनी राग रागिनियाँ थीं, ईमन कल्यान, सुध कल्यान झिंझोटी, कन्हाडा, खम्माच, सोहनी, परज, बिहाग, सोरठ, कालंगडा, भैरवी, गीत, ललित भैरी रूप पकडे हुए सचमुच के जैसे गाने वाले होते हैं, उसी रूप में अपने अपने समय पर गाने लगे और गाने लगियाँ। उस नाच का जो ताव भाव रचावट के साथ हो, किसका मुंह जो कह सके। जितने महाराजा जगतपरकास के सुखचैन के घर थे, माधो बिलास, रसधाम कृष्ण निवास, मच्छी भवन, चंद भवन सबके सब लप्पे लपेटे और सच्ची मोतियों की झालरें अपनी अपनी गाँठ में समेटे हुए एक भेस के साथ मतवालों के बैठनेवालों के मुँह चूम रहे थे।

पर कुंवर जी का रूप क्या कहूं। कुछ कहने में नहीं आता। न खाना, न पीना, न मग चलना, न किसी से कुछ कहना, न सुनना। जिस स्थान में थे उसी में गुथे रहना और घडी-घडी कुछ सोच सोच कर सिर धुनना। होते-होते लोगों में इस बात का चरचा फैल गई। किसी किसी ने महाराज और महारानी से कहा - कुछ दाल में काला है। वह कुंवर बुरे तेवर और बेडौल आंखें दिखाई देती हैं। घर से बाहर पांव नहीं धरना। घरवालियां जो किसी डौल से बहलातियां हैं, तो और कुछ नहीं करना, ठंडी ठंडी सांसें भरता है। और बहुत किसी ने छेडा तो छपरखट पर जाके अपना मुंह लपेट के आठ आठ आंसू पडा रोता है। यह सुनते ही कुंवर उदैभान के माँ-बाप दोनों दौड आए। गले लगाया, मुंह चूम पांच पर बेटे के गिर पडे हाथ जोडे और कहा - जो अपने जी की बात है सो कहते क्यों नहीं? क्या दुखडा है जो पडे-पडे कहराते हो? राज-पाट जिसको चाहो दे डालो। कहो तो क्या चाहते हो? तुम्हारा जी क्यों नहीं लगता? भला वह क्या है जो नहीं हो सकता? मुंह से बोलो जी को खोलो। जो कुछ कहने से सोच करते हों, अभी लिख भेजो। जो कुछ लिखोगे, ज्यों की त्यों करने में आएगी। जो तुम कहो कुंए में गिर पडो, तो हम दोनों अभी गिर पडते हैं। कहो - सिर काट डालो, तो सिर अपने अभी काट डालते हैं। कुंवर उदैभान, जो बोलते ही न थे, लिख भेजने का आसरा पाकर इतना बोले - अच्छा आप सिधारिए, मैं लिख भेजता हूं। पर मेरे उस लिखे को मेरे मुंह परकिसी ढब से न लाना। इसीलिए मैं मारे लाज के मुखपाट होके पडा था और आपसे कुछ न कहना था। यह सुनकर दोनों महाराज और महारानी अपने स्थान को सिधारे। तब कुंवर ने यह लिख भेजा - अब जो मेरा जी होंठों पर आ गया और किसी डौल न रहा गया और आपने मुझे सौ-सौ रूप से खोल और बहुत सा टटोला, तब तो लाज छोड के हाथ जोड के मुंह फाड के घिघिया के यह लिखता हूं- चाह के हाथों किसी को सुख नहीं। है भला वह कौन जिसको दुख नहीं॥ उस दिन जो मैं हरियाली देखने को गया था, एक हिरनी मेरे सामने कनौतियां उठाए आ गई। उसके पीछे मैंने घोडा बगछुट फेंका। जब तक उजाला रहा, उसकी धुन में बहका किया। जब सूरज डूबा मेरा जी बहुत ऊबा। सुहानी सी अमराइयां ताड के मैं उनमें गया, तो उन अमराइयों का पत्ता-पत्त्ता मेरे जी का गाहक हुआ। वहां का यह सौहिला है। कुछ रंडियां झूला डाले झूल रही थीं। उनकी सिरधरी कोई रानी केतकी महाराज जगतपरकास की बेटी हैं। उन्होंने यह अंगूठी अपनी मुझे दी और मेरी अंगूठी उन्होंने ले ली और लिखौट भी लिख दी। सो यह अंगूठी लिखौट समेत मेरे लिखे हुए के साथ पहुंचती है। अब आप पढ लीजिए। जिसमें बेटे का जी रह जाय, सो कीजिए। महाराज और महारानी ने अपने बेटे के लिखे हुए पर सोने के पानी से यों लिखा - हम दोनों ने इस अंगूठी और लिखौट को अपनी आंखों से मला। अब तुम इतने कुछ कुढो पचो मत। जो रानी केतकी के मां बाप तुम्हारी बात मानते हैं, तो हमारे समधी और समधिन हैं। दोनों राज एक हो जाएंगे। और जो कुछ नांह - नूंह ठहरेगी तो जिस डौल से बन आवेगा, ढाल तलवार के बल तुम्हारी दुल्हन हम तुमसे मिला देंगे। आज से उदास मत रहा करो। खेलो, कूदो, बोलो चालो, आनंदें करो। अच्छी घडी- शुभ मुहूरत सोच के तुम्हारी ससुराल में किसी ब्राह्मन को भेजते हैं; जो बात चीत चाही ठीक कर लावे और शुभ घडी शुभ मुहूरत देख के रानी केतकी के मां-बाप के पास भेजा। ब्राह्मन जो शुभ मुहूरत देखकर हडबडी से गया था, उस पर बुरी घडी पडी। सुनते ही रानी केतकी के मां-बाप ने कहा - हमारे उनके नाता नहीं होने का।

उनके बाप-दादे हमारे बाप दादे के आगे सदा हाथ जोडकर बातें किया करते थे और दो टुक जो तेवरी चढी देखते थे, बहुत डरते थे। क्या हुआ, जो अब वह बढ गए, ऊंचे पर चढ गए। जिनके माथे हम न बाएं पांव के अंगूठे से टीका लगावें, वह महाराजों का राजा हो जावे। किसी का मुंह जो यहबात हमारे मुंह पर लावे! ब्राह्मण ने जल-भुन के कहा - अगले भी बिचारे ऐसे ही कुछ हुए हैं। राजा सूरजभान भी भरी सभा में कहते थे - हममें उनमें कुछ गोत का तो मेल नहीं। यह कुंवर की हठ से कुछ हमारी नहीं चलती। नहीं तो ऐसी ओछी बातें कब हमारे मुंह से निकलती। यह सुनते ही उन महाराज ने ब्राह्मन के सिर पर फूलों की चंगेर फेंक मारी और कहा - जो ब्राह्मण की हत्या का धडका न होता तो तुझको अभी चक्की में दलवा डालता। और अपने लोगों से कहा- इसको ले जाओ और ऊपर एक अंधेरी कोठरी में मूंद रक्खो। जो इस ब्राह्मन पर बीती सो सब उदैभान ने सुनी। सुनते ही लडने के लिए अपना ठाठ बांध के भादों के दल बादल जैसे घिर आते हैं, चढ आया। जब दोनों महाराजों में लडाई होने लगी, रानी केतकी सावन-भादों के रूप रोने लगी; और दोनों के जी में यह आ गई - यह कैसी चाहत जिसमें लोह बरसने लगा और अच्छी बातों को जी तरसने लगा।

इन पापियों से कुछ न चलेगी, यह जानते थे। राजपाट हमारा अब निछावर करके जिसको चाहिए, दे डालिए; राज हम से नहीं थम सकता। सूरजभान के हाथ से आपने बचाया। अब कोई उनका चचा चंद्रभान चढ आवेगा तो क्योंकर बचना होगा? अपने आप में तो सकत नहीं। फिर ऐसे राज का फिट्टे मुंह कहां तक आपको सताया करें। जोगी महेंदर गिर ने यह सुनकर कहा - तुम हमारे बेटा बेटी हो, अनंदे करो, दनदनाओ, सुख चैन से रहो। अब वह कौन है जो तुम्हें आंख भरकर और ढब से देख सके। यह बघंबर और यह भभूत हमने तुमको दिया। जो कुछ ऐसी गाढ पडे तो इसमें से एक रोंगटा तोड आग में फूंक दीजियो। वह रोंगटा फुकने न पावेगा जो बात की बात में हम आ पहुंचेंगे। रहा भभूत, सो इसीलिए है जो कोई इसे अंजन करे, वह सबको देखें और उसे कोई न देखें, जो चाहे सो करें। जाना गुरुजी का राजा के घर गुरु महेंदर गिर के पांव पूजे और धनधन महाराज कहे। उनसे तो कुछ छिपाव न था। महाराज जगतपरकास उनको मुर्छल करते हुए अपनी रानियों के पास ले गए। सोने रूपे के फूल गोद भर-भर सबने निछावर किए और माथे रगडे। उन्होंने सबकी पीठें ठोंकी। रानीकेतकी ने भी गुरुजी को दंडवत की; पर जी में बहुत सी गुरु जी को गालियां दी। गुरुजी सात दिन सात रात यहां रहकर जगतपरकास को सिंघासन पर बैठाकर अपने बंधवर पर बैठ उसी डौल से कैलाश पर आ धमके और राजा जगत परकास अपने अगले ढब से राज करने लगा। रानी केतकी का मदनबान के आगे रोना और पिछली बातों का ध्यान कर जान से हाथ धोना। दोहरा (अपनी बोली की धुन में) रानी को बहुत सी बेकली थी। कब सूझती कुछ बुरी भली थी॥ चुपके-चुपके कराहती थी। जीना अपना न चाहती थी॥ कहती थी कभी अरी मदनबान। हैं आठ पर मुझे वही ध्यान॥ यां प्यास किसे किसे भला भूख। देखूं वही फिर हरे हरे रुख॥ टपके का डर है अब यह कहिए। चाहत का घर है अब यह कहिए॥ अमराइयों में उनका वह उतरना। और रात का सांय सांय करना॥ और चुपके से उठके मेरा जाना। और तेरा वह चाह का जताना॥ उनकी वह उतार अंगूठी लेनी। और अपनी अंगूठी उनको देनी॥ आंखों में मेरे वह फिर रही है। जी का जो रूप था वही है॥ क्योंकर उन्हें भूलूं क्या करूं मैं। मां बाप से कब तक डरूं मैं॥ अब मैंने सुना है ऐ मदनबान। बन बन के हिरन हुए उदयभान॥ चरते होंगे हरी हरी दूब। कुछ तू भी पसीज सोच में डूब॥ मैं अपनी गई हूं चौकडी भूल। मत मुझको सुंघा यह डहडहे फूल॥ फूलों को उठाके यहां से ले जा। सौ टुकडे हुआ मेरा कलेजा॥ बिखरे जी को न कर इकट्ठा। एक घास का ला के रख दे गट्ठा॥ हरियाली उसी की देख लूं मैं। कुछ और तो तुझको क्या कहूं मैं॥ इन आंखों में है फडक हिरन की। पलकें हुई जैसे घासवन की॥ जब देखिए डबडबा रही हैं। ओसें आंसू की छा रही हैं॥ यह बात जो जी में गड गई है। एक ओस-सी मुझ पे पड गई है। इसी डौल जब अकेली होती तो मदनवान के साथ ऐसे कुछ मोती पिरोती। रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदनवान का साथ देने से नाहीं करना और लेना उसी भभूत का, जो गुरुजी दे गए थे, आँख मिचौबल के बहाने अपनी मां रानी कामलता से। एक रात रानी केतकी ने अपनी मां रानी कामलता को भुलावे में डालकर यों कहा और पूछा - गुरुजी गुसाई महेंदर गिर ने जो भभूत मेरे बाप को दिया है, वह कहां रक्खा है और उससे क्या होता है? रानी कामलता बोल उठी - आंख मिचौवल खेलने के लिए चाहती हूं। जब अपनी सहेलियों के साथ खेलूं और चोर बनूं तो मुझको कोई पकड न सके। महारानी ने कहा - वह खेलने के लिए नहीं है। ऐसे लटके किसी बुरे दिन के संभलने को डाल रखते हैं। क्या जाने कोई घडी कैसी है, कैसी नहीं। रानी केतकी अपनी मां की इस बात पर अपना मुंह थुथा कर उठ गई और दिन भर खाना न खाया। महाराज ने जो बुलाया तो कहा मुझे रूच नहीं। तब रानी कामलता बोल उठी - अजी तुमने सुना भी, बेटी तुम्हारी आंख मिचौवल खेलने के लिए वह भभूत गुरुजी का दिया मांगती थी। मैंने न दिया और कहा, लडकी यह लडकपन की बातें अच्छी नहीं। किसी बुरे दिन के लिए गुरुजी गए हैं। इसी पर मुझसे रूठी है। बहुतेरा बहलाती है, मानती नहीं।

राजा इंदर का कुँवर उदैभान का साथ करना राजा इंदर ने कह दिया, वह रंडियाँ चुलबुलियाँ जो अपने मद में उड चलियाँ हैं, उनसे कह दो-सोलहो सिंगार, बास गूँधमोती पिरो अपने अचरज और अचंभे के उड न खटोलों का इस राज से लेकर उस राज तक अधर में छत बाँध दो। कुछ इस रूप से उड चलो जो उडन-खटोलियों की क्यारियाँ और फुलवारियाँ सैंकडों कोस तक हो जायें। और अधर ही अधर मृदंग, बीन, जलतरंग, मँुहचग, घँुगरू, तबले घंटताल और सैकडों इस ढब के अनोखे बाजे बजते आएँ। और उन क्यारियों के बीच में हीरे, पुखराज, अनवेधे मोतियों के झाड और लाल पटों की भीड भाड की झमझमाहट दिखाई दे और इन्हीं लाल पटों में से हथफूल, फूलझडियाँ, जाही जुही, कदम, गेंदा, चमेली इस ढब से छूटने लगें तो देखने वालों को छातियों के किवाड खुल जायें। और पटाखे जो उछल उछल फूटें, उनमें हँसती सुपारी और बोलती करोती ढल पडे। और जब तुम सबको हँसी आवे, तो चाहिए उस हँसी से मोतियों की लडियाँ झडें जो सबके सब उनको चुन चुनके राजे हो जायें। डोमनियों के जो रूप में सारंगियाँ छेड छेड सोहलें गाओ। दोनों हाथ हिलाके उगलियाँ बचाओ। जो किसी ने न सुनी हो, वह ताव भाव वह चाव दिखाओ; ठुड्डियाँ गिनगिनाओ, नाक भँवे तान तान भाव बताओ; कोई छुटकर न रह जाओ। ऐसा चाव लाखों बरस में होता है। जो जो राजा इंदर ने अपने मुँह से निकाला था, आँख की झपक के साथ वही होने लगा। और जो कुछ उन दोनों महाराजों ने कह दिया था, सब कुछ उसी रूप से ठीक ठीक हो गया। जिस ब्याह की यह कुछ फैलावट और जमावट और रचावट ऊपर तले इस जमघट के साथ होगी, और कुछ फैलावा क्या कुछ होगा, यही ध्यान कर लो। ठाटो करना गोसाई महेंदर गिर का जब कुँवर उदैभान को वे इस रूप से ब्याहने चढे और वह ब्राह्मन जो अँधेरी कोठरी से मुँदा हुआ था, उसको भी साथ ले लिया और बहुत से हाथ जोडे और कहा-ब्राह्मन देवता हमारे कहने सुनने पर न जाओ। तुम्हारी जो रीत चली आई है, बताते चलो। एक उडन खटोले पर वह भी रीत बता के साथ हो लिया। राजा इंदर और गोसाई महेंदर गिर ऐरावत हाथी ही पर झूलते झालते देखते भालते चले जाते थे। राजा सूरजभान दुल्हा के घोडे के साथ माला जपता हुआ पैदल था। इसी में एक सन्नाटा हुआ। सब घबरा गए। उस सन्नाटे में से जो वह 90 लाख अतीत थे, अब जोगी से बने हुए सब माले मोतियों की लडियों की गले में डाले हुए और गातियाँ उस ढब की बाँधे हुए मिरिगछालों और बघंबरों पर आ ठहर गए। लोगों के जियों में जितनी उमंगें छा रही थी, वह चौगुनी पचगुनी हो गई। सुखपाल और चंडोल और रथों पर जितनी रानियाँ थीं, महारानी लछमीदास के पीछे चली आतियाँ थीं। सब को गुदगुदियाँ सी होने लगीं इसी में भरथरी का सवाँग आया। कहीं जोगी जातियाँ आ खडे हुए। कहीं कहीं गोरख जागे कहीं मुछंदारनाथ भागे। कहीं मच्छ कच्छ बराह संमुख हुए, कहीं परसुराम, कहीं बामन रूप, कहीं हरनाकुस और नरसिंह, कहीं राम लछमन सीता सामने आई, कहीं रावन और लंका का बखेडा सारे का सारा सामने दिखाई देने लगा कहीं कन्हैया जी की जनम अष्टमी होना और वसुदेव का गोकुल ले जाना और उनका बढ चलना, गाए चरानी और मुरली बजानी और गोपियों से धूमें मचानी और राधिका रहस और कुब्जा का बस कर लेना, वही करील की कुंजे, बसीबट, चीरघाट, वृंदावन, सेवाकुंज, बरसाने में रहना और कन्हैया से जो जो हुआ था, सब का सब ज्यों की त्यों आँखों में आना और द्वारका जाना और वहाँ सोने का घर बनाना, इधर बिरिज को न आना और सोलह सौ गोपियों का तलमलाना सामने आ गया। उन गोपियों में से ऊधो क हाथ पकड कर एक गोपी के इस कहने ने सबको रूला दिया जो इस ढब से बोल के उनसे रूँधे हुए जी को खोले थी। चौचुक्का जब छांडि करील को कुँजन को हरि द्वारिका जीउ माँ जाय बसे। कलधौत के धाम बनाए घने महाजन के महाराज भये। तज मोर मुकुट अरू कामरिया कछु औरहि नाते जाड लिए। धरे रूप नए किए नेह नए और गइया चरावन भूल गए। अच्छापन घाटों का कोई क्या कह सके, जितने घाट दोनों राज की नदियों में थे, पक्के चाँदी के थक्के से होकर लोगों को हक्का बक्का कर रहे थे। निवाडे, भौलिए, बजरे, लचके, मोरपंखी, स्यामसुंदर, रामसुंदर, और जितनी ढब की नावे थीं, सुनहरी रूपहरी, सजी सजाई कसी कसाई और सौ सौ लचकें खातियाँ, आतियाँ, जातियाँ, ठहरातियाँ, फिरातियाँ थीं। उन सभी पर खचाखच कंचनियाँ, रामजनियाँ, डोमिनियाँ भरी हुई अपने अपने करतबों में नाचती गाती बजाती कूदती फाँदती घूमें मचातियाँ अँगडातियाँ जम्हातियाँ उँगलियाँ नचातियाँ और ढुली पड तियाँ थीं और कोई नाव ऐसी न थी जो साने रूपे के पत्तरों से मढी हुई और सवारी से भरी हुई न हो। और बहुत सी नावों पर हिंडोले भी उसी डब के थे। उन पर गायनें बैठी झुलती हुई सोहनी, केदार, बागेसरी, काम्हडों में गा रही थीं। दल बादल ऐसे नेवाडों के सब झीलों में छा रहे थे।

आ पहुँचना कुँवर उदैभान का ब्याह के ठाट के साथ दूल्हन की ड्योढी पर बीचों बीच सब घरों के एक आरसी धाम बना था जिसकी छत और किवाड और आंगन में आरसी छुट कहीं लकडी, ईट, पत्थर की पुट एक उँगली के पोर बराबर न लगी थी। चाँदनी सा जोडा पहने जब रात घडी एक रह गई थी। तब रानी केतकी सी दुल्हन को उसी आरसी भवन में बैठकर दूल्हा को बुला भेजा। कुँवर उदैभान कन्हैया सा बना हुआ सिर पर मुकुट धरे सेहरा बाँधे उसी तडावे और जमघट के साथ चाँद सा मुखडा लिए जा पहुँचा। जिस जिस ढब में ब्राह्मन और पंडित बहते गए और जो जो महाराजों में रीतें होती चली आई थी, उसी डौल से उसी रूप से भँवरी गँठजोडा हो लिया। अब उदैभान और रानी केतकी दोनों मिले। घास के जो फूल कुम्हालाए हुए थे फिर खिले॥ चैन होता ही न था जिस एक को उस एक बिन। रहने सहने सो लगे आपस में अपने रात दिन॥ ऐ खिलाडी यह बहुत सा कुछ नहीं थोडा हुआ। आन कर आपस में जो दोनों का, गठजोडा हुआ। चाह के डूबे हुए ऐ मेरे दाता सब तिरें। दिन फिरे जैसे इन्हों के वैसे दिन अपने फिरें॥ वह उड नखटोलीवालियाँ जो अधर में छत सी बाँधे हुए थिरक रही थी, भर भर झोलियाँ और मुठ्ठियाँ हीरे और मोतियाँ से निछावर करने के लिए उतर आइयाँ और उडन-खटोले अधर में ज्यों के त्यों छत बाँधे हुए खडे रहे। और वह दूल्हा दूल्हन पर से सात सात फेरे वारी फेर होने में पिस गइयाँ। सभों को एक चुपकी सी लग गई। राजा इंदर ने दूल्हन को मुँह दिखाई में एक हीरे का एक डाल छपरखट और एक पेडी पुखराज की दी और एक परजात का पौधा जिसमें जो फल चाहो सो मिले, दूल्हा दूल्हन के सामने लगा दिया। और एक कामधेनू गाय की पठिया बछिया भी उसके पीछे बाँध दी और इक्कीस लौंडि या उन्हीं उडन-खटोलेवालियों में से चुनकर अच्छी से अच्छी सुथरी से सुथरी गाती बजातियाँ सीतियाँ पिरोतियाँ और सुघर से सुघर सौंपी और उन्हें कह दिया-रानी केतकी छूट उनके दूल्हा से कुछ बातचीत न रखना, नहीं तो सब की सब पत्थर की मूरत हो जाओगी और अपना किया पाओगी। और गोसाई महेंदर गिर ने बावन तोले पाख रत्ती जो उसकी इक्कीस चुटकी आगे रक्खी और कहा-यह भी एक खेल है। जब चाहिए, बहुत सा ताँबा गलाके एक इतनी सी चुटकी छोड दीजै; कंचन हो जायेगा। और जोगी जी ने सभी से यह कह दिया-जो लोग उनके ब्याह में जागे हैं, उनके घरों में चालीस दिन रात सोने की नदियों के रूप में मनि बरसे। जब तक जिएँ, किसी बात को फिर न तरसें। 9 लाख 99 गायें सोने रूपे की सिगौरियों की, जड जडाऊ गहना पहने हुए, घुँघरू छमछमातियाँ महंतों को दान हुई और सात बरस का पैसा सारे राज को छोड दिया गया। बाईस सौ हाथी और छत्तीस सौ ऊँट रूपयों के तोडे लादे हुए लुटा दिए। कोई उस भीड भाड में दोनों राज का रहने वाला ऐसा न रहा जिसको घोडा, जोडा, रूपयों का तोडा, जडाऊ कपडों के जोडे न मिले हो। और मदनबान छुट दूल्हा दूल्हन के पास किसी का हियाव न था जो बिना बुलाये चली जाए। बिना बुलाए दौडी आए तो वही और हँसाए तो वही हँसाए। रानी केतकी के छेडने के लिए उनके कुँवर उदैभान को कुँवर क्योडा जी कहके पुकारती थी और ऐसी बातों को सौ सौ रूप से सँवारती थी। दोहरा घर बसा जिस रात उन्हीं का तब मदनबान उसी घडी। कह गई दूल्हा दुल्हन से ऐसी सौ बातें कडी॥ जी लगाकर केवडे से केतकी का जी खिला। सच है इन दोनों जियों को अब किसी की क्या पडी॥ क्या न आई लाज कुछ अपने पराए की अजी। थी अभी उस बात की ऐसी भला क्या हडबडी॥ मुसकरा के तब दुल्हन ने अपने घूँघट से कहा। मोगरा सा हो कोई खोले जो तेरी गुलछडी॥ जी में आता है तेरे होठों को मलवा लूँ अभी। बल बें ऐं रंडी तेरे दाँतों की मिस्सी की घडी॥

बहुत दिनों पीछे कहीं रानी केतकी भी हिरनों की दहाडों में उदैभान उदैभान चिघाडती हुई आ निकली। एक ने एक को ताडकर पुकारा-अपनी तनी आँखें धो डालो। एक डबरे पर बैठकर दोनों की मुठभेड हुई। गले लग के ऐसी रोइयाँ जो पहाडों में कूक सी पड गई। दोहरा छा गई ठंडी साँस झाडों में। पड गई कूक सी पहाडों में। दोनों जनियाँ एक अच्छी सी छांव को ताडकर आ बैठियाँ और अपनी अपनी दोहराने लगीं। बातचीत रानी केतकी की मदनबान के साथ रानी केतकी ने अपनी बीती सब कही और मदनबान वही अगला झींकना झीका की और उनके माँ-बाप ने जो उनके लिये जोग साधा था, जो वियोग लिया था, सब कहा। जब यह सब कुछ हो चुकी, तब फिर हँसने लगी। रानी केतकी उसके हंसने पर रूककर कहने लगी- दोहरा हम नहीं हँसने से रूकते, जिसका जी चाहे हँसे। हैं वही अपनी कहावत आ फँसे जी आ फँसे॥ अब तो सारा अपने पीछे झगडा झाँटा लग गया। पाँव का क्या ढूँढती हाजी में काँटा लग गया॥ पर मदनबान से कुछ रानी केतकी के आँसू पँुछते चले। उन्ने यह बात कही-जो तुम कहीं ठहरो तो मैं तुम्हारे उन उजडे हुए माँ-बाप को ले आऊँ और उन्हीं से इस बात को ठहराऊँ। गोसाई महेंदर गिर जिसकी यह सब करतूत है, वह भी इन्हीं दोनों उजडे हुओं की मुट्ठी में हैं। अब भी जो मेरा कहा तुम्हारे ध्यान चढें, तो गए हुए दिन फिर सकते हैं। पर तुम्हारे कुछ भावे नहीं, हम क्या पडी बकती है। मैं इस पर बीडा उठाती हूँ। बहुत दिनों पीछे रानी केतकी ने इस पर अच्छा कहा और मदनबान को अपने माँ-बाप के पास भेजा और चिट्ठी अपने हाथों से लिख भेजी जो आपसे हो सके तो उस जोगी से ठहरा के आवें। मदनबान का महाराज और महारानी के पास फिर आना चितचाही बात सुनना मदनबान रानी केतकी को अकेला छोड कर राजा जगतपरकास और रानी कामलता जिस पहाड पर बैठी थीं, झट से आदेश करके आ खडी हुई और कहने लगी-लीजे आप राज कीजे, आपके घर नए सिर से बसा और अच्छे दिन आये। रानी केतकी का एक बाल भी बाँका नहीं हुआ। उन्हीं के हाथों की लिखी चिट्ठी लाई हूँ, आप पढ लीजिए। आगे जो जी चाहे सो कीजिए। महाराज ने उस बधंबर में एक रोंगटा तोड कर आग पर रख के फूँक दिया। बात की बात में गोसाई महेंदर गिर आ पहुँचा और जो कुछ नया सर्वाग जोगी-जागिन का आया, आँखों देखा; सबको छाती लगाया और कहा- बघंबर इसीलिये तो मैं सौंप गया था कि जो तुम पर कुछ हो तो इसका एक बाल फूँक दीजियो। तुम्हारी यह गत हो गई। अब तक क्या कर रहे थे और किन नींदों में सोते थे? पर तुम क्या करो यह खिलाडी जो रूप चाहे सौ दिखावे, जो नाच चाहे सौ नचावे। भभूत लडकी को क्या देना था। हिरनी हिरन उदैभान और सूरजभान उसके बाप और लछमीबास उनकी माँ को मैंने किया था। फिर उन तीनों को जैसा का तैसा करना कोई बडी बात न थी। अच्छा, हुई सो हुई। अब उठ चलो, अपने राज पर विराजो और ब्याह को ठाट करो। अब तुम अपनी बेटी को समेटो, कुँवर उदैभान को मैंने अपना बेटा किया और उसको लेके मैं ब्याहने चढूँगा। महाराज यह सुनते ही अपनी गद्दी पर आ बैठे और उसी घडी यह कह दिया सारी छतों और कोठों को गोटे से मढो और सोने और रूपे के सुनहरे सेहरे सब झाड पहाडों पर बाँध दो और पेडों में मोती की लडियाँ बाँध दो और कह दो, चालीस दिन रात तक जिस घर में नाच आठ पहर न रहेगा, उस घर वाले से मैं रूठा रहूँगा, और छ: महिने कोई चलने वाला कहीं न ठहरे। रात दिन चला जावे। इस हेर फेर में वह राज था। सब कहीं यही डौल था। जाना महाराज, महारानी और गुसाई महेंदर गिर का रानी केतकी के लिये फिर महाराज और महारानी और महेंदर गिर मदनबान के साथ जहाँ रानी केतकी चुपचाप सुन खींचे हुए बैठी हुई थी, चुप चुपाते वहाँ आन पहुँचे। गुरूजी ने रानी केतकी को अपने गोद में लेकर कुँवर उदैभान का चढावा दिया और कहा-तुम अपने माँ-बाप के साथ अपने घर सिधारो। अब मैं बेटे उदैभान को लिये हुए आता हूं। गुरूजी गोसाई जिनको दंडित है, सो तो वह सिधारते हैं। आगे जो होगी सो कहने में आवेंगी-यहाँ पर धूमधाम और फैलावा अब ध्यान कीजिये। 


महाराज जगतपरकास ने अपने सारे देश में कह दिया-यह पुकार दे जो यह न करेगा उसकी बुरी गत होवेगी। गाँव गाँव में अपने सामने छिपोले बना बना के सूहे कपडे उन पर लगा के मोट धनुष की और गोखरू, रूपहले सुनहरे की किरनें और डाँक टाँक टाँक रक्खो और जितने बड पीपल नए पुराने जहाँ जहाँ पर हों, उनके फूल के सेहरे बडे-बडे ऐसे जिसमें सिर से लगा पैदा तलक पहुँचे बाँधो। चौतुक्का पौदों ने रंगा के सूहे जोडे पहने। सब पाँण में डालियों ने तोडे पहने।। बूटे बूटे ने फूल फूल के गहने पहने। जो बहुत न थे तो थोडे-थोडे पहने॥ जितने डहडहे और हरियावल फल पात थे, सब ने अपने हाथ में चहचही मेहंदी की रचावट के साथ जितनी सजावट में समा सके, कर लिये और जहाँ जहाँ नयी ब्याही ढुलहिनें नन्हीं नन्हीं फलियों की ओर सुहागिनें नई नई कलियों के जोडे पंखुडियों के पहने हुए थीं। सब ने अपनी गोद सुहाय और प्यार के फूल और फलों से भरी और तीन बरस का पैसा सारे उस राजा के राज भर में जो लोग दिया करते थे जिस ढण से हो सकता था खेती बारी करके, हल जोत के और कपडा लत्ता बेंचकर सो सब उनको छोड दिया और कहा जो अपने अपने घरों में बनाव की ठाट करें। और जितने राज भर में कुएँ थे, खँड सालों की खँडसालें उनमें उडेल गई और सारे बानों और पहाड तनियाँ में लाल पटों की झमझमाहट रातों को दिखाई देने लगी। और जितनी झीलें थीं उनमें कुसुम और टेसू और हरसिंगार पड गया और केसर भी थोडी थोडी घोले में आ गई।


जंगल का चंद्रमा, असभ्य चंद्रमा है

$
0
0
जितने सभ्य होते हैं
उतने अस्वाभाविक ।


आदिवासी जो स्वाभाविक हैं
उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है
हमारी तरह अस्वाभाविक ।


जंगल का चंद्रमा
असभ्य चंद्रमा है
इस बार पूर्णिमा के उजाले में
आदिवासी खुले में इकट्ठे होने से
डरे हुए हैं
और पेड़ों के अंधेरे में दुबके
विलाप कर रहे हैं


क्योंकि एक हत्यारा शहर
बिजली की रोशनी से
जगमगाता हुआ
सभ्यता के मंच पर बसा हुआ है ।
विनोद कुमार शुक्ल

मंटो : ऐ दिल है मुश्किल जीना यहाँ

$
0
0

विद्यार्थी चटर्जी

सआदत हसन मंटो यदि जी रहे होते तो इस साल वे सौ के हो जाते, यानी उस हिंदुस्तान से 35साल ज्यादा बुजुर्ग जिसे वे शिद्दत से मोहब्बत करते थे और पाकिस्तान नाम की एक अनजान ज़मीन पर जिसे छोड़ कर नहीं जाना चाहते थे, जो दर्दनाक काम आखिरकार उन्हें करना ही पड़ा। 

अप्रैल 1990  में लाहौर की बात है जब मंटो के कुछ साथियों के संग बातचीत के दौरान उनके करीबी दोस्त अहमद राही ने कहा था, ‘‘मेरे खयाल से मंटो की मौत उसी दिन शुरू हो गई जिस दिन उन्होंने पाकिस्तान की धरती पर कदम रखा।’’

कौन मंटो ? ये सवाल शायद किसी भी ठीक-ठाक सलाहियत वाले इंसान ने पूछ लिया होता यदि दो दशक पहले आप उससे उनका ज़िक्र करते। अब ऐसा नहीं है। आजकल तो शराब और सिगरेट के धुएं में डूबी एक साहित्यिक शाम में उनका नाम ले लेना फैशन हो चला है।

यही सही, लेकिन पेंगुइन का हमें तहे दिल से शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसने मंटो की कहानियों के एक से ज्यादा संकलन निकाल कर पाठकों को एक ऐसे लेखक से परिचित करवाने की एक कोशिश की है जिसने तैंतालीस बरस की उतार-चढ़ाव भरी छोटी सी जिंदगी में अपना नाम कृश्न चंदर, इस्मत चुगताई और राजिंदर सिंह बेदी के सिलसिले में बढ़ाते हुए आधुनिक उर्दू फिक्शन के स्तम्भों में जोड़ लिया।

सआदत हसन मंटो पंजाब के लुधियाना ज़िले में 11मई 1912को समराला में पैदा हुए थे। वे मूल रूप से कश्मीरी थे, इसका पता उस मज़ाकिया ख़त में चलता है जो उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को एक बार लिखा था जिसमें उन्हें ‘‘हमवतन’’ और खुद को ‘‘पंडित’’ के नाम से संबोधित किया था। दो दशक से ज्यादा के अपने साहित्यिक सफ़र में मंटो ने दो सौ से ज्यादा छोटी कहानियां लिखीं। नाटकों और निबंधों में भी उन्होंने हाथ आज़माया, लेकिन उनकी समूची शख्सियत की पहचान उनकी छोटी कहानियों और दर्दनाक दौर में सहमे हुए एक पात्र के तौर पर ही होती है।

हमारे जैसे मुल्क में जहां खुद के बारे में अत्यधिक प्रशंसा करने की परंपरा नहीं रही है, पिछले कुछ वक्त से साहित्यिक लोगों ने मंटो की छोटी कहानियों को दुनिया के बेहतरीन साहित्य में गिना है जो उनके बारे में काफी कुछ कहता है। उनकी तीन कहानियां टोबा टेक सिंह, ठंडा गोश्त और खोल दो तकसीम पर लिखी सर्वश्रेष्ठ रचनाएं हैं जिसने भले ही दोनों ओर कुछ लोगों की किस्मत बुलंद करने में मदद की हो, लेकिन करोड़ों लोग रूहानियत के उस सर्द वीराने का शिकार हो गए जो टोबा टेक सिंह की धरती थी।

अब तक हिंदुस्तान और पाकिस्तान के कुछ तबकों में मंटो जाने जाते थे, लेकिन उनकी मशहूरियत अब धरती पर फैल रही है। मंटो की मौत तैंतालीसवीं सालगिरह से कुछ माह पहले 18जनवरी 1955को लाहौर में हुई! उनकी देह टूट चुकी थी, लेकिन उनकी आवाज़ तब भी नहीं डिगी थी और धरती के रहवासियों के प्रति उनका प्यार और उनकी समझ बेहद गहरी थी, जिसमें सबसे पहला वे खुद को मानते थे।

सलमान रुश्दी मंटो को ‘‘आधुनिक हिंदी लघुकथा का निर्विवाद बादशाह’’ मानते हैं। (हो सकता है कि रुश्दी मानिक बंदोपाध्याय या मलयाली कहानीकार वाइकाॅम मोहम्मद बशीर को न जानते हों)। लेकिन यह ध्यान देने वाली बात है कि मंटो और रुश्दी दोनों को ही अलग-अलग तरीकों से और अलग-अलग हालात में समाजी और मज़हबी खयालात के मामले में खुद के प्रति ईमानदार रहने की कीमत चुकानी पड़ी, दंड भुगतना पड़ा और सामाजिक बेदखली का शिकार होना पड़ा।

मंटो मुंबई की तलछट में रहने वाले पात्रों के बारे में बेहद क्रूर और हौलनाक सच्चाई लिखते थे जहां वे हिंदी फिल्मों के लिए कहानियां और डायलाॅग लिखा करते थे। उनके कई किरदार तकसीम के शिकार थे और खुद के उन ठेकेदारों के भी, जिनमें मंटो को शैतान नज़र आता था। मानिक बंदोपाध्याय की ही तरह मंटो के भीतर भी सेक्स, मज़हब और हिंसा के बीच के अजीबोगरीब और क्रूर रिश्तों को बेपर्द कर देने की एक तड़प थी।

इस सिलसिले में मंटो को मज़हबी आधार पर बने पाकिस्तान में राज्य और धार्मिक समूहों दोनों का ही कोपभाजन बनना पड़ा। उनके लिखे को कुफ्ऱ करार दिया गया। मुल्लाओं और मुस्लिम लीग में अपनी बंद किस्मत की चाबी खोजने वाले मंटो की दास्तानों के अपने मतलब निकालते थे, जिनसे मंटो का कोई लना-देना नहीं था। मंटो को जान-बूझ कर गलत समझा गया, समझाया गया और कलंकित किया गया। लेकिन किसी भी तरीके से खुद की नज़र में वे मंटो को गिरा न पाए, या फिर उनके पाठकों से मंटो को दूर कर पाए। गरीबी की मारी उनकी छोटी सी ज़िंदगी के अंत तक मंटो वही लिखते रहे जिसमें उनका भरोसा था। वे न डरे, न डिगे।

इस मोड़ पर एक हलका सा विषयांतर करना चाहूंगा। इस उपमहाद्वीप में रहने वाले हमारे जैसे वे सभी लोग जो मोपासां, बाल्ज़ाॅक, गोगोल, चेखव या एडगर एलेन पो के प्रशंसक हैं, उन्हें अपनी मिट्टी से जन्मे लघुकथा के इस जीनियस के लिए थोड़ा वक्त निकालना चाहिए, जिसे अब तक नज़रअंदाज़ किया गया है। ठीक ही कहा हैः दुनिया को समझना हो तो घर से बाहर देखो। यदि हम अपनी चैखट पर मौज़ूद ज़िंदगी, किरदारों, उनकी दिक्कतों और रंगों को नहीं समझ सकते, तो इतनी बड़ी दुनिया में दिख रहे इनके अक्स को कैसे देख पाएंगे?

मंटो को हमारे वक्त और ऊर्जा की दरकार है क्योंकि आधुनिक उर्द साहित्य में मौलिक काम करने वाले वे दुर्लभ लेखकों में हैं जिनका काम अब अंग्रेज़ी, हिंदी और बांग्ला समेत कई भाषाओं में आ चुका है। मंटो के बेहतरीन अनुवादक खालिद हसन कहते हैं, ‘‘मंटो को भारत और पाकिस्तान के बाहर कम ही लोग जानते हैं, लेकिन किसी भी पैमाने पर दुनिया के अहम लघुकथा लेखकों में उनका नाम नुमाया है।’’

हाशिये पर रहने वाले लोगों की दास्तानों का अपने व्यापक नज़रिये से आवाहन करने में अपनी काबिलियत  पर मंटो का जबरदस्त भरोसा था। ये बात अलग है कि समाज से उन्हें अपने इस काम के लिए बहुत स्वस्थ खुराक नहीं मिलती थी। मंटो को शायद इस बात का संतोष रहा कि वे अपने पीछे इतना सारा पुलिंदा छोड़े जा रहे थे जो वक्त और ज़माने के इम्तिहान में खरा उतरेगा। उनका ये इलहाम इस बात से पता चलता है कि अपनी असमय और दर्दनाक मौत के एक साल पहले उन्होंने खुद अपना ही मर्सिया लिख डाला था जिसे अलग-अलग लोगों ने अपने-अपने तरीके से समझने की कोशिश की हैः ये रहा सआदत हसन मंटो। उसके साथ दफ्न हो गई छोटी कहानियां लिखने की सारी कला, सारा जादू। टनों मिट्टी के तले दबा वह सोच रहा है कि कौन अच्छा दास्तानगो है, वो खुद या खुदा!’’ खानिद हसन ने हमें बताया कि उनकी कब्र पर यह मर्सिया नहीं लिखा गया क्योंकि उनके परिवार को डर था कि इससे मौलवी नाराज़ हो जाएंगे।’’

हम यह भी नहीं जानते कि मंटो ने जो इबादत लिखी थी, से किसी ने भी, खुद उनके समेत कभी भी कहीं पढ़ा हो। खुदाई को हलके-फुलके में लेने वाला कोई भी यह बात समझ सकता है कि यह इबादत मज़ाक में लिखी गई थी। मंटो को कई बार इस बात का अहसास हुआ था कि खुदा या उसके खुदमुख्तार ठेकेदारों का मज़ाक उड़ाना कितना खतरनाक हो सकता है। यह छोटी सी इबादत मज़ाकिया और याद रखने लायक हैः ‘‘या खुदा, इस कायनात के मालिक, रहमदिल और दरियादिलः हम जो बुराई में डूबे हुए लोग हैं, तुम्हारे सामने घुटने टेक कर अर्ज़ करते हैं कि इस दुनिया से सआदत हसन मंटो, वल्द गुलाम हसन मंटो को उठा लो, जो खुदा का नेक बंदा है। उसे उठा ले या खुदा, क्योंकि वो खुशबुओं से दूर गंदगी के पीछे भागता है। उसे सूरज की रोशनी से चिढ़ है, उसे अंधेरी गुफाएं रास आती हैं। शालीनता की वह इज्ज़त नहीं करता, बेशर्म और नंगी चीजें उसे खींचती हैं। मिठास उसे पसंद नहीं, कड़वे फल के लिए वो अपनी जान तक दे सकता है। घरेलू औरतों की ओर वो देखता तक नहीं, वेश्या का संगत उसे सातवें आसमान पर पहुंचा देता है। बहते पानी से दूर रहता है, धूल में लोटना उसे पसंद है। दूसरे रोते हैं तो वह हंसता है। लोग हंसते हैं तो वह रोता है। बुराई की कालिख पुते चेहरों को वो बड़े करीने से धोता है ताकि उनका असली चेहरा सामने आ सके।’’ इबादत का अंत ठीक वैसे ही होता है जैसा कि अकेले मंटो कर सकते थेः ‘‘वो तुम्हारे बारे में कभी नहीं सोचता, हर जगह शैतान के पीछे लगा रहता है, जिसने खुदा की बेकद्री कभी की थी।’’

ज़ाहिर है, तकसीम के वक्त दूसरी ओर जाने से पहले हिंदुस्तान और पाकिस्तान में उसे जितनी चोटें आईं, वे इस महान कलाकार के मज़ाकिया मिजाज को डिगा नहीं पाईं; एक ऐसी भाषा में खुद का मज़ाक उड़ाने की काबिलियत जिसमें घुस पाना अकसर आसान नहीं होता; और इंसानी मूल्यों सरमाएदारी की वो ताकत जो इज़हार के लिए अमूर्त चीज़ों को लिखने का औज़ार बनाती है। नई-नई बनी पाक धरती’’ के न तो मौलवी, न ही सियासतदान उनसे अपने समय और उस दौर के इंसानों की दास्तानों को कलमबद्ध करने के भरोसे को छीन पाए।

लेकिन कुछेक पल ऐसे अते थे जब मंटो खुद को अकेला महसूस करते, मसलन जब कोर्ट में उनके खिलाफ मुकदमों का अंबार लगता जा रहा था। आज़ादी से पहले मंटो को अश्लील कहानियां लिखने के लिए तीन बार मुकदमा झेलना पड़ा था और पाकिस्तान की पैदाइश के बाद भी तीन बार। सभी छह मुकदमों में वे बरी हुए, लेकिन इस दौरान उन्हें इसी धरती पर हर तरह का नरक भोगने को मजबूर होना पड़ा। अगर उस दौर के कुछ उदार तरक्कीपसंद अदीब उनकी मदद को न आए होते, तो तय था कि उनका अकेलापन और गहरा होता।

हालांकि इस बारे में कुछ और कहा जाना चाहिए। मंटो जिस अलगाव का शिकार अकसरहा हो जाते थे, उसकी एक नहीं कई वजह थीं। एक तो दारूखोरी जो उनके शरीर को दीमक की तरह चाट गई, साथ ही जो कुछ उन्होंने लिखने से कमाया वो भी बोतल की भेंट चढ़ गया। दूसरे, उस वक्त के बंददिमाग समाज के ताकतवर अलमबरदारों की ओर से उनके लिखे की मुखालिफत; औश्र आखिर में किसी भी कलाकार या लेखक संगठन का सदस्य बनने से उनका इनकार।

मंटो की पत्नी साफिया की कही बात यहां ध्यान देने लायक है, जो ‘‘अच्छे और बुरे हर दौर में उनके साथ बनी रहीं।’’ उन्होंने 6अप्रैल 1968को मंटो के एक भारतीय जीवनीकार को लिखा, ‘‘(मंटो) के साथ किसी ने भी सही बरताव नहीं किया। सच्चाई यही है कि हिंदुस्तान छोड़ने का उनका मन नहीं था, लेकिन तकसीम के कुछ माह पहले फिल्मिस्तान ने उन्हें निकाले जाने का नोटिस दे दिया (जहां वे नौकरी करते थे) और मेरी मानिए, इससे उनका दिल टूट गया। लंबे समय तक उन्होंने इसे मुझसे छुपाए रखा क्योंकि उन्हें मि. मुखर्जी (कंपनी के मालिक) और अशोक कुमार (अभिनेता) से अपनी दोस्ती पर काफी नाज़ था। आखिर कैसे वे मुझे बता देते कि उन्हें नोटिस दे दिया गया है। इसके बाद ही उन्होंने खूब पीना शुरू किया जिसने अंत में उनकी जान ही ले ली। मैं पहले इधर आ गई थी, वे 1948में अए। बंबई में अकेले रहते हुए उन्होंने पीने की सारी हदे तोड़ दीं। यहां उनकी जिंदगी दिक्कतों से भरी थी। आप खुद सोच सकते हैं कि जिस मुल्क में थे वह किसी भी लिहाज़ से उनके हिसाब से कैसा था। उनकी सेहत भी बिगड़ती चली गई। लेकिन एक काम वे करते रहे। वे रोज़ लिखते, गोया उन पर कोई उधार हो, रोज़ एक कहानी, जब तक कि वे खत्म नहीं हो गए। बस इतना ही जानती हूं मैं।’’

ये सही है कि शराबखोरी ने मंटो को शरीर और जेब दोनों के ग़म दिए, उनकी मौत को करीब ला दिया, लेकिन अजीब बात है कि इसी ने उनके किरदारों और दास्तानों में जान भी भरी, उस हद तक असल हालात रचने की सहूलियत दी जो अंत में नाकाबिले बरदाश्त हो जाए। उनके पास इन चीज़ों को अपनी कहानी में बुननें की वो सलाहियत थी जो बिरले ही मिलती है। उनकी कहानियों में पीना एक मुहावरे की तरह आता है, उस दमघोंटू सामाजिक व्यवस्था की बेड़ियों से आज़ादी के रूप में जो उस हर शख्स का जीना मुहाल कर देती है जो उसके बनाए पैमानों पर नहीं चलता। मंटो के दुश्मन लोगों को यह भरोसा दिलाने में कामयाब हो चुके थे कि वह बदज़ात और बदफ़ैल किस्म का आदमी है जो राष्ट्र का दुश्मन है, लगातार दारू पीता है और बदनाम कहानियां लिखता है। कोर्ट से बरी होने के बाद भी ये सवाल अपनी जगह बना रह गया कि लगातार उसे गाली देते रहने वालों को ऐसा करने से कैसे रोका जाए। मंटो को गाली देने वालों ने बड़ी आसानी से लोगों और किरदारों के प्रति मंटो की ईमानदारी, रहमदिली और उस विश्वास को हवा में उड़ा दिया कि इंसानियत की जीत तभी होगी जब अंधविश्वासों व गरीबों-मजलूमों पर हो रहे जुल्म के खिलाफ लोग लडे़ंगे और इन्हें हराएंगे।

एकबारगी यह खयाल आ सकता है कि मंटो जैसा बराबरी में विश्वास रखने वाला मजलूमों का हमदर्द वामपंथी लेखकों और बुद्धिजीवियों के किसी एक संगठन की आजीवन सदस्यता भी ले सकता था जिनकी चालीस के दशक में मुंबई में खूब चलती थी। उेसा कुछ भी नहीं हुआ, क्योंकि मंटो अपनी मर्जी का मालिक था, उसे और किसी की मिल्कियत मंजूर नहीं थी। तमगों, सियासी विचारधाराओं और मान्यताओं पर उसे भरोसा नहीं था, यही चीज़ उसे तथाकाित प्रगतिशील लेखकों-कलाकारों के करीब आने से रोकती थी। दूसरी ओर माॅस्को की तरफ झुके दिमागों वाले विद्वानों को अपना सदस्य बनाने वाला संगठन भी मंटो जैसे मुक्त चिंतकों से सुरक्षित दूरी बनाए रखता था। मंटो के दौर के कई लेखकों ने लिखा भी है कि कैसे उन्हें अपनी मर्जी का मालिक होना ही मंजूर था, भले वामपंथी लेखकों से उनके संपर्क थे, लेकिन घोषित तौर पर राजनीतिक जीवों से उन्होंने जान-बूझ कर खुद को दूर रखा था। हालांकि, मोटे तौर पर यह बात सही लगती है कि यदि तरक्कीपसंद जमात के साथ वे और करीबी रिश्ते में होते, तो उन्हें उस हद तक अलगाव नहीं झेलना पड़ता जिसमें उन्हें धीरे-धीरे धकेल दिया गया। हालांकि अंत आते-आते अपनी जबरदस्त इच्छाशक्ति और जादुई जीनियस के बल पर वे उस लगाव को भी पार करने में कामयाब हो गए।

मंटो के इस पहलू पर दिल्ली की लेखिका तरन्नुम रियाज़ ने लिखा है, ‘‘मंटो के लिखे में कुछ ऐसे सुराग हैं जो उन्हें अलग पहचान और अलग रंग से नवाज़ते हैं। कभी-कभार उनका लिखा विरोधाभासों का ढेर जान पड़ता है। हालांकि ध्यान से पढ़ने पर लगता है कि हर जगह एक ही फलसफा चला आ रहा है। मंटो पर समाजवाद का काफी असर दिखता है, लेकिन हिंदुस्तान की राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं का नुस्खा वे उसे नहीं मानते। वे किसी खास विचारधारा को भी नहीं मानते। हालांकि उनकी राजनीतिक और सामाजिक चेतना काफी धारदार है जो उन्हें ‘‘उदार’’ बनाती है... भारत में उर्दू साहित्य के इतिहास पर यह एक अफसोसनाक टिप्पणी जैसा है कि मंटो को वह जगह नहीं मिली जो उनका हक था, सिर्फ इसलिए कि कुछ बड़े प्रगतिशील लेखकों ने उन्हें प्रतिक्रियावादी करार देकर खारिज कर दिया।’’

मंटो की जिंदगी और विरासत की इकलौती सबसे अहम बात किसी की प्रभुसत्ता के विचार के प्रति उनका विरोध था, चाहे वह जहां से भी पैदा होता हो- राज्यसत्ता, सामाजिक-मज़हबी सत्ता, राजनीतिक विचारधारा, पार्टियां या फिर बौद्धिक तबके की सत्ता। वे हर चीज़ पर खुले दिमाग से सोचते; खुले दिल से बात करते जिसमें पीठ पीछे छुरा घोंपना और टुच्चई दुश्मन सरीखी बात थी; और खुली ज़बान भी, जो फैसला तो नहीं सुनाती, लेकिन कानों में गुंज रही आवाज़ों को लोगों तक पहुंचाती ज़रूर थी। प्रतिक्रियावादी कहे जाने पर मंटो का जवाब भी मंटोवादी ही था, न कोई खेद, न रहमः ‘‘मुझे तथाकथित कम्युनिस्ट जबरदस्त नापसंद हैं। मैं उन लोगों की सराहना नहीं कर सकता जो आरामकुर्सी में धंस कर ‘‘हंसिए-हथौड़े’’ की बात करते हैं। काॅमरेड सज्जाद ज़हीर जो चांदी के कप में दूध पीते थे, मेरी नज़र में इसीलिए हमेशा विदूषक रहे। कामकाजी मज़दूरों के पसीने में उनका सच्चा मन महकता है। हो सकता है कि इस पसीने का इस्तेमाल कर के पैसा बनाने वाले और इसे स्याही बनाकर लंबे मैनिफेस्टो लिखने वाले गंभीर लोग हों। मुझे माफ करेंगे, लेकिन मैं उन्हें ठग मानता हूं।’’

मंटो के लिए ये ‘‘नीम-हकीम किसी काम के नहीं थे, जो क्रेमलिन के नुस्खे का इस्तेमाल कर के साहित्य और राजनीति का अचार बना रहे थे’’, लेकिन उनके भीतर गहरे बैठा मानवतावादी समाज में फैलते अमेरिकी असर और नवजात पाकिस्तान की सियासत को लेकर बेचैन था। जबरदस्त व्यंग्य और समझदारी के साथ चचा सैम को लिखे अपने नौ में से एक ख़त में मंटो कहते हैं, ‘‘हमारी बसें अमेरिकी औज़ारों से बनी होंगी। हमारे इस्लामिक पाजामा अमेरिकी मशीनों से सिले होंगे। हमारा मिट्टी का ढेला अमेरिकी मिट्टी से बना होगा जिसे ‘‘हाथ से किसी ने नहीं छुआ होगा’’। कुरान को रखने वाले फोल्डिंग स्टैंड अमेरिकी होंगे और नमाज़ पढ़ने की चटाइयां भी अमेरिकी होंगी। देखते जाओ अंकल, सब तुम्हारी शान में कसीदे पढ़ेंगे।’’

प्रगतिशीलों ने जिसे राजनीतिक स्तर पर नासमझ माना था, उस मंटो को माॅस्को और वाॅशिंगटन के खेल बहुत पहले ही दिख गए थे। शीत युद्ध का दौर था और तुरंत आज़ाद हुए दो देश इस राजनीतिक खेल में काफी उपजाऊ साबित हो सकते थे। हो सकता है मंटो जिंदगी के किसी भी पड़ाव पर कभी भी राजनीति में न गए हों, लेकिन उन्हें जानने का दावा करने वाले उनके आलोचकों कीयह बात बिल्कुल अटपटी है कि ज़मीनी हकीकत से वे अनजान थे। एक अर्थ में वे कहीं ज्यादा जानते थे। इसीलिए अपनी रचनात्मकता को उन्होंने बचाए रखा और दूसरों की तरह कुछ समय बाद बेकार हो जाने से वे बचे रहे- जो हश्र उनके दौर के कई लोगों का हुआ भी।

मंटो को चाहने वाले दलील देते हैं कि वे जिस तरह के शख्स थे और बने रहे, उसके पीछे फिल्म इंडस्ट्री के साथ उनका जुड़ाव बड़ी वजह था। मुफलिसी, अंदाज़े बयां की तलाश, रचनात्मकता के इज़हार की बेचैनी, खयालों की अजीबोगरीब उड़ान, नसों को हिला देने वाली असुरक्षा- ये सब चीज़ें जो फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ी हुई हैं, उन्होंने धीरे-धीरे मिल कर मंटो नाम की प्रतिभा को गढ़ा और उनकी सामाजिक चेतना को आकार दिया। इसीलिए मंटो की मौत के कई साल बाद जब मृणाल सेन ने उनकी एक कहानी पर फिल्म बनाना तय किया, तो वे दरअसल ऐसा कर के कलंकित किए गए एक ऐसे जीनियस को श्रद्धांजलि देना चाह रहे थे जो शब्दों की दुनिया में भी उतना ही रमा था जितना चलते फिरते छवियों की दुनिया में। बहरहाल, अंतरीन नाम की यह फिल्म भारी फ्लाप रही, उसकी कहानी हालांकि बिल्कुल अलग है। 

अगर मंटो को अपनी राह चुनने दी जाती, तो वे मुंबई छोड़ कर नहीं जाते। अगर वे कुछ और लंबा जी जाते, तो कुछ साल बाद आई फिल्म सीआईडी के उस मशहूर गाने और उसमें ज़ाहिर अहसास का तहे दिल से शुक्रिया करते जिसमें जाॅनी वाकर का किरदार गुनगुना रहा हैः ऐ दिल है मुश्किल जीना यहाँ / जरा हटके जरा बचके ये है बाॅम्बे मेरी जां... 

अनुवाद- अभिषेक श्रीवास्तव 

कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो

$
0
0
कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो 
बहुत बड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो


तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है 
मैं जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो 

नशे में चूर हूँ मैं भी तुम्हें भी होश नहीं 
बड़ा मज़ा हो अगर थोड़ी दूर साथ चलो 

ये एक शब की मुलाक़ात भी ग़नीमत है 
किसे है कल की ख़बर थोड़ी दूर साथ चलो 

अभी तो जाग रहे हैं चिराग़ राहों के
अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो 

तवाफ़-ए-मन्ज़िल-ए-जानाँ हमें भी करना है 
"फ़राज़" तुम भी अगर थोड़ी दूर साथ चलो



अहमद फ़राज़

मिट्ठू

$
0
0
शैलेन्द्र साहू 
               
बहुत छोटे शहरों की दुपहरें बहुत लंबी हुआ करती हैं और अगर छुट्टियों के दिन हों तो आप इन दुपहरों को सिर्फ सुन सकते हैं घर में बंद रहते हुए, कम से कम मेरी उम्र की मज़बूरी यही थी , इसलिए मै दोपहर भर लेटे लेटे इन आवाजों से दोपहर की तस्वीर बनाता रहता, अभी जो गुज़रा वो फैजाबाद की चुडियां बेचता फेरीवाला है थोड़ी देर में टिफिन के डब्बे खडखडाता हुआ बंधू सोनी गुजरेगा वो सिविल लेन के सारे दफ्तरों में टिफिन पहुंचाता है फिर बर्फ वाला भोंपू बजाता हुआ और बीच बीच में मेहर चाचा की नशे में डूबी आवाज़ सुनाई  देती रहेगी मेहर चाचा सुबह से पीना शुरू करते हैं और रात तक पीते हैं वो हमारे घर के सामने वाली सड़क के उस पार रहते हैं  हर दो तीन  साल में एक नई चाची ले आते हैं और साल पूरा होने से पहले ही वो किसी और के साथ भाग जाती है.

मेहर चाचा बहुत अकेले हैं और उन्हें कसबे के सब लोग मेहरारू मरान सिंग कहकर बुलाते हैं और तब वो हँसते हुए नशे में कोई गीत गाकर जवाब देते हैं पता नहीं क्यूँ उस वक्त वो और भी अकेले दिखाई देते हैं.. वैसे बहुत सी बातें तब मुझे नहीं पता थीं दरअसल उन दिनों मै बहुत छोटा था अगर कहूँ की उस दोपहर के दिन तक मै बहुत छोटा था तो ज्यादा सही होगा. और  देखा जाए तो सही कुछ भी नहीं था पिताजी की सख्त हिदायत थी की मै दोपहर बाहर नहीं निकल सकता और मुझे ज़बरदस्ती ही सोने की बेकार कोशिश करते हुए दोपहर काटना होता था .मै माँ को बताता रहता की चिंटू कितना बुद्धू है और माँ मुझे राजकुमार और राक्षस की कहानियां सुनाती , माँ की कहानियों में हमेशा एक राजकुमारी भी होती थी जिसकी कितनी खूबसूरत थीकी कल्पना मेरे कल्पना पर निर्भर था मेरी कहानियों में मै माँ को सिर्फ चिंटू ,बिट्टू और गोलू की बेवकूफियां ही गिनाता और मिट्ठू से जुडी बातें गोल कर जाता, क्यूँ ? पता नहीं.

"माँ क्या शादी शादी खेलना बुरी बात है?"

मैं माँ से पूछता हूँ और माँ मुस्कुरा देती है ,माँ मेरी हर बात पर मुस्कुरा देती है ,माँ का मुस्कुराना मुझे अच्छा लगता है ,माँ का मुस्कुराना पिताजी को भी अच्छा लगता है  माँ को मैं अच्छा लगता हूँमाँ को पिताजी भी अच्छे लगते हैं माँ को जब मुझ पर प्यार आता है तो मुझे अपने पास सुला लेती हैंपिताजी को जब माँ पर प्यार आता है तो वो भी ऐसा ही करते हैं, मुझे माँ पर प्यार आता है तो मै उनकी गर्दन पर हाथ डालकर सोता हूँ ,एक पैर उनकी कमर के गिर्द लिपटाते हुए और उनकी बगलों का पसीना सूंघने लगता हूँपिताजी पता नहीं क्या करते होंगे.

माँ के भीतर एक अजीब सी गंध बसती है ,मै किसी भी गंध को माँ से पहचानता हूँ. दरअसल उस दिन और दोपहर  से पहले तक मै किसी भी गंध को माँ से पहचानता था .मै जिस उम्र में था वंहा हर पहचान परिवार के बीच से उपजता था . बाहर की दुनिया में शामिल होने के लिए मै माँ की कहानियों से होकर गुज़रता था. एक सचमुच की दोपहर में जाने के लिए बहुत सी झूटमूठ की दुपहरों को पार करना होता था . और इस तरह गिनती शुरू हो जाती , एक , दो ,तीन, चार......मै मन ही मन गिनने लगता और राजकुमारी किले की खिड़की से अपने बाल नीचे फैला देती ,दोपहर अलसाए कुत्ते की तरह आँगन में आकर पसर जाता और कुँए के पास वाला अमरुद नशे में खड़े डोलता रहता ,कभी कभी मै उसके पत्ते को हथेलियों में रगड़कर नाक के पास लाकर सूंघता ,मुझे कच्चे  अमरुद की गंध अच्छी लगती है ,मुझे मिट्ठू भी अच्छी लगती है,मिट्ठू को कोई अच्छा नहीं लगता ,ऐसा वो कहती है पर मै यकीन नहीं करता .

मिट्ठू की बहुत सी बातों पर मै यकीन नहीं करता , मिट्ठू को मै अच्छा लगता हूँ ,उसकी इस बात पर मै यकीन करता हूँ . इकहत्तर,बहत्तर,तिहत्तर....खर्र..खर्र..सौ की गिनती पूरी होने से पहले ही माँ की साँसे पटरी पर लग जातीं,मै अधूरी कहानी के बीच राजकुमारी के बालों को पकड़कर किले की दीवार चढ़ने की कोशिश करने लगता . मिट्ठू आँगन में होगी मेरा इंतज़ार करते हुए, राजकुमारी किसका इंतज़ार करती है ,राजकुमारी की खिडकी दीवार की बहुत ऊँचाई पर है,
"कोई दीवार इतनी ऊंची नहीं की मै उसे फलांग न सकूँ " ऐसा चिंटू कहता है जब हम पदारू के बाग़ में आम चुराने जाते हैं  मै मिट्ठू को बताता हूँ  .

"चिंटू तो बौड़म है" ऐसा मिट्ठू कहती है . मिट्ठू सही कहती है . मिट्टू हमेशा सही कहती है ,फिर भी मै मिट्ठू की बहुत सी बातों पर यकीन नहीं करता ,हालाँकि मिट्ठू को बहुत कुछ पता है यंहा तक की उसे मरकर जिंदा होना भी आता है ,ऐसा मैंने खुद देखा है .

"तुझे पता है शादी के बाद दूल्हा दुल्हिन क्या करते हैं?" मिट्ठी पूछती है ,मिट्ठू कीआंखे बहुत बड़ी बड़ी हैं जो सवाल पूछते वक्त अक्सर गोल हो जाती हैं फिर और बड़ी लगती हैं  ,किले की दीवार बहुत ऊंची है ,इतनी ऊंची की खिड़की पर खड़ी राजकुमारी दिखाई नहीं पड़ती है ,मै बहुत छोटा हूँ.
 "क्या होता है?" मै पूछकर और छोटा हो जाता हूँ.

"मैं तुझे सिखा दूंगी ,ठीक है."मिट्ठू फुसफुसाकर कहती है. मिट्ठू हर बात को किसी रहस्य की तरह से कहती है  कि जैसे ये बात सिर्फ उसे पता है और वो सिर्फ मुझे बता रही हो और इसके लिए मुझे उसका अहसान मानना चाहिए और उससे हमेशा डरकर रहना चाहिए वैसे ये सच है की मै मिट्ठू से डरता हूँ फिर भी उसके साथ रहना मुझे अच्छा लगता है पता नहीं क्यूँ !

पिताजी ताश खेलने के लिए माँ से पैसे हमेशा फुसफुसाकर मांगते हैं, माँ पूरी दोपहर सोती है ,पिताजी अपने आफिस से छुट्टी वाले दिन पूरी दोपहर ताश खेलते हैं ,मै पूरी दोपहर मिट्ठू की बुलाहट का इंतज़ार करता हूँ,गर्मी की दोपहरें हमेशा फुसफुसाहट की तरह होती हैं ऐसा मै सोचता हूँ और राजकुमारी खिलखिलाने लगती है .खिलखिलाती हुई राजकुमारी और भी ज्यादा खूबसूरत लगती होगी ये मै किले की दीवार के नीचे ही खड़े खड़े सोचता हूँ माँ खूबसूरत नहीं हैं पर मै उनसे बहुत प्यार करता हूँ,राजकुमारी को प्यार करूँ इसके लिए उसका खूबसूरत होना ज़रूरी है . मै राजकुमारी के लंबे बालों को पकड़कर उसी के सहारे से ऊपर चढ़ने लगता हूँ किले की दीवार पर पैर  जमाते हुए और खिड़की तक पहुँचने से पहले हर बार फिसलकर नीचे आ जाता हूँ,और राजकुमारी का चेहरा नहीं देख पाता वो ज़रूर बहुत खूबसूरत होगी ऐसा मै सोचता हूँ और माँ को सोता हुआ छोड़कर बहुत धीमे से दबे पांव दरवाज़े से सांकल उतारता हूँ .

"श्श्श्ह कोई शोर नहीं ,मै तुम्हे एक ऐसी जगह लेकर जाउंगी जहाँ  हम छुपकर सुहागरात मना सकें." मिट्ठू मेरे कान में कहती है उसकी सांस से कान में गुदगुदी होती है मै खिलखिलाता हूँ ,ये राजकुमारी राक्षस के कैद में रहकर भी ऐसे खिलखिलाती क्यूँ है , खिल,खिल,खिल..खड़,खड़,खड़...जब हवा चलती है तो आँगन में अमरुद के कसैले पत्ते झरते हैं और मै राजकुमारी के बालों को थामे हुए किले की दीवार पर इधर से उधर डोलता हूँ.
 "सुहागरात ? वो क्या होता है?"

"बुद्धू ,तुझे तो कुछ भी नहीं पता "  मिट्ठू झूठमूठ के गुस्से में मुझे झिड़कती है  और मै सचमुच के शर्म से कुँए में कूद जाना चाहता हूँ ,और कुँए के पाट पर बैठ जाता हूँ और मिट्ठू को देखता हूँ किसी ऐसे अपराधी की नज़र से जो किसी और के अपराध की सज़ा काट रहा हो और मिट्ठू मुझे ऐसे किसी पुलिसवाले की नज़र से दिलासा देती है जिसे उस बेचारे अपराधी से पूरी हमदर्दी हो .किले की दीवार पर खिड़की बहुत ऊँचाई में है ,मुझे अचानक से ही घबराहट होती है पर मै राजकुमारी का चेहरा भी  देखना चाहता हूँ और इस रोमंच की कल्पना से डरता भी हूँ . राजकुमारी की खिलखिलाहट में अजीब सा रहस्य  है .

"फुरफुन्दी(dragonfly) पकड़ें क्या मिट्ठू?" मै इस जादू को तोडना चाहता हूँ .इस जादू से निकलना चाहते हुए बंधा रहता हूँ .

 "शादी शादी खेलना है या नहीं?" मिट्ठू सचमुच के गुस्से में कहती है .

 "हाँ खेलना तो है." मै सचमुच के डर से हाँ कहता हूँ, कभी कभी मिट्ठू से बहुत डर लगता है. मिट्ठू पूरी दोपहर भटकती फिरती है उसकी माँ के मरने के बाद से उसके पिताजी  उससे कुछ नहीं कहते ,और देर से काम से लौटते हैं, मिट्ठू बहादुर है .राजकुमारी सचमुच में खिलखिलाती है या झूठमूठ में ये भी मै जानना चाहता हूँ .पर मै डरपोक हूँ.

"अगर बच्चा पकड़ने वाला आ गया तो ? माँ कहती है दोपहर में अकेले घुमते बच्चों को वो पकड़कर ले जाते हैं ", मैं  माँ के पास भी लौटना चाहता हूँ ,राक्षस के लौटने से पहले ,मुझे राक्षस से भी डर लगता है और राजकुमारी की खिलखिलाहट रहस्य है ,इस रहस्य में जादू है ,मै इस जादू को तोडना चाहता हूँ ,मै इस जादू में बंधा रहता हूँ ,दौड़कर भागना भी चाहता हूँ पर मिट्ठू के पीछे पीछे घिसटता रहता हूँ.वो मुझे उस चमत्कारी जगह पर लेकर जाएगी जो उसने अकेले भटकते हुए कंही खोजा है और वंहा जाकर हम सुहागरात मना सकेंगे हालाँकि मुझे सचमुच नहीं पता की ये होता क्या है पर ज़रूर कोई खराब चीज़ होती होगी तभी तो मिट्ठू मुझे इतनी दूर लेकर जा रही है,पर पता नहीं क्यूँ खराब चीजों को जानने के लिए मै हमेशा ही ज्यादा उत्सुक रहता हूँ और साथ ही धुकधुकी भी लगी रहती है पर मै अभी घिसट रहा हूँ मिट्ठू के पीछे पीछे एक हाथ से अपनी निक्कर सम्हाले हुए और दुसरे हाथ में पकडे हुए डंडे से ज़मीन पर निशान खींचते हुए ,जैसे अपने पीछे कोई गुप्त सन्देश छोड़ता  चल रहा घोड़े पर सवार बहादुर राजकुमार, ये हमारे आँगन के पीछे वाली कोलकी है  से होकर मामा सेठ के खेत को पार करते हुए उधर  रेलवे लाइन की तरफ जिधर ढेर सारे परसा के पेड़ हैं ,बेसरम के झुण्ड और चुरमुटों की झाड़ियाँ उनके बीच से रास्ता बनाते हुए, मिट्ठू के दुपट्टे से बंधे बंधे एक मरगिल्ले पिल्ले की तरह.

 "जब कोई बड़ा साथ हो तो बच्चा पकड़ने वाले नजदीक नहीं आते" मिट्ठू मुस्कुराते हुए कहती है ,मुस्कुराती हुई मिट्ठू और बड़ी लगती है मै और छोटा लगता हूँ ,किले की दीवार और ऊंची होती जाती है ,राजकुमारी की खिलखिलाहट और नजदीक आती जाती है और फिर चुरमुट के झाड़ियों के बीच पंहुचकर एक झालर खुल जाता है ,एक सुरक्षित मांद ,प्राकृतिक घोसला. 

"मैंने ये झालर खोजा है ,पर तुम्हे मै यंहा आने दूंगी,लेकिन मेरी किरिया(कसम) जो अगर इसके बारे में किसी को बताओ तो. अब से ये दूल्हा दुल्हिन का घर है."

"मिट्ठू मुझे डर लग रहा है" मै रुआंसा हो जाता हूँ ,मिट्ठू मुझे झालर के भीतर ले आती है ,मै कमर से नीचे  खिसकती अपनी फटी हुई निक्कर को ऊपर खींचता हूँ,मिट्ठू मेरे दुसरे  हाथ में पकड़ा हुआ डंडा छीनकर दूर फेंक देती है और पकड़कर अपनी ओर खींचती है.

"तू दूल्हा  मैं दुल्हिन " मिट्ठू कहती है और मुझे पकड़कर नीचे बिठा देती है झालर के भीतर अखबार से फाड़कर निकाला  हुआ कृष्ण राधा की एक तस्वीर है और कच्चे बेर की गुठलियाँ बोरकुट और आमकूट की पन्नियाँ  शायद हमारे आने से पहले वंहा कोई कुत्ता सुस्ताकर गया  होगा ये मै झालर के भीतर की गंध से जान लेता हूँ ,मुझे अचानक ही से बहुत डर लगता है  मिट्ठू को डर नहीं लगता,मिट्ठू मिडिल स्कूल  में पढ़ती है ,राजकुमारी के बाल कितने मुलायम हैं ,मिट्ठू कित्ती बड़ी है तभी तो सलवार कमीज़ पहनती है ,मै अपने हाथ बहार खींच लेना चाहता हूँ,मिट्ठू कितनी गन्दीहै वो अपने पजामे के भीतर कुछ नहीं पहनती ,राजकुमारी ने मुझे अपने बालों सहित ऊपर खींचना शुरू कर दिया है ,मैं रोना चाहता हूँ पर शर्म के मारे रो नहीं पाताराजकुमारी खिलखिलाकर हंसती है ,मिट्ठू हंसने और रोने के बीच गले से अजीब आवाजें निकालती है ,उसकी पकड़ मेरी कलाइयों  पे सख्त होती जाती है , मुझे राक्षस के घोड़े की टापें सुनाई पड़ती हैं,वो नजदीक आ रहा है और कभी भी मुझे दबोच सकता है ,मैं राजकुमारी के बाल छोड़ देता हूँ और किले की दीवार से नीचे की ओर गिरने लगता हूँ,मिट्ठू के बांह पर मेरे दांतों के निशान हैंमिट्ठू दर्द से चीखती है ,राजकुमारी खिलखिलाती है ,मै भागता हूँ ,झालर से निकलकर घास पर सहकारी दूकान के पीछे वाले मैदान से होते हुए भागता जाता हूँ,बदहवास और राक्षस मेरे पीछे है ,रेल के पटरियों के पार ,बेसरम के झुण्ड ,सेमल के बगल से होकर मामा सेठ के खेत की मेढ़ों पर गिरते पड़ते और आँगन की टूटे  दीवार को फांदते हुए और ये आ गया हमारे घर का  कुआँ ,नहीं मुझे अभी नहीं मरना,मुझे माँ के पास पहुंचना है और ये धडाक,  दरवाज़ा खुला ,दो खपरे टूटकर छाँदी(छत) से नीचे गिरती है ,फिर सांकल चढाती  हुई ऊँगलियाँये ऊंगलियों में क्या है,अजीब सा लिसलिसा मै उँगलियों को कमीज़ पर पोंछता हुआ, एक अजीब सी गंध. 

मैं हाथ झटकता हूँ छिः छिः और फिर से नाक के पास जाती ऊँगलियाँ ये गंध तो सचमुच ही बहुत अजीब है रहस्यमई ,जादुई राजकुमारी के खिलखिलाहट की तरह अजीब ही गंध...मेरी अब तक की जानी हुई गंधों से अलग, मेरी अब तक के दुपहरों से अलग ,माँ पिताजी और परिवार की पहचान से अलग ,मेरे खुद का जाना हुआ या कह लीजिए की मिट्ठू के द्वारा मुझ पर खोला हुआ एक और रहस्य ,मिट्ठू का बताया हुआ पर मिट्ठू से अलग मेरा अपना निजी रहस्य. मुझे भले ही अब कोई मेहर चाचा के बीवियों के भाग जाने का रहस्य न भी बताए तो कोई बात नहीं मेरा भी रहस्य है जो मैं कभी किसी को नहीं बताऊंगा आखिर मुझ पर मिट्ठू की किरिया (कसम) जो है .
पोस्ट में प्रयुक्त कलाकृति उदय सिंह की है.

एंड्रयू सेरिस का जाना

$
0
0
संदीप मुदगल

इस 20 जून को अमेरिका के मशहूर फिल्म समीक्षक एंड्रयू सेरिस का 83 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। एंड्रयु सेरिस फिल्म समीक्षा की उस पीढ़ी से थे, जिसमें पाउलिन केल और राॅजर एबर्ट जैसी हस्तियों का शुमार होता है। इनमें से राॅजर एबर्ट आज भी मौजूद हैं, लेकिन पाउलिन केल के बाद अब सेरिस के जाने से फिल्म समीक्षा के क्षेत्र में एक बड़ा खालीपन आ गया है, जिसे भरना कठिन है। 1950 में अमेरिका के विद्रोही तेवर वाले अखबार ‘द विलेज वाॅयस’ की शुरुआत से जो लोग उससे जुड़े थे, उनमें एंड्रयू सेरिस भी थे। द विलेज वाॅयस के संस्थापकों में से हाॅवर्ड फास्ट भी थे।

अखबार के कलेवर के मुताबिक ही सेरिस की समीक्षाएं भी होती थीं। कई बड़े फिल्म निर्देशकों की विश्वविख्यात फिल्मों में से कुछ कमजोर अंशों पर जोर देना सेरिस की समीक्षाओं की विशेषता होती थी। उन्होंने डेविड लीन जैसे निर्देशकों की बाद की भव्य फिल्मों की तीखी आलोचना की, लेकिन उनकी आलोचना तर्कहीन नहीं होती थी। बेशक अधिकांश पाठकों को उनकी समीक्षाएं पूर्वग्रहों से पूर्ण नजर आती हों, लेकिन उनकी सिनेमाई दृष्टि अपनी तरह की विशिष्ट थी। कई वर्ष पहले पुस्तकालय में उनकी एक पुस्तक ‘कन्फेशंस आॅफ ए कल्टिस्ट आॅन सिनेमा’ से उनकी लिखी समीक्षाओं से मैं पहली बार रूबरू हुआ था। 1955 से 1969 तक के समय की फिल्मों पर लिखी उनकी छोटी-बड़ी समीक्षाओं का यह संग्रह अपने आप में सिने समीक्षा की एक टेक्स्ट बुक भी हो सकती है। किसी भी फिल्म को देखने का और फिर उस पर लिखने का क्या तरीका हो सकता है, इस पुस्तक से सीखा जा सकता है। उनकी अन्य पुस्तकों की तरह यह पुस्तक आज गूगल बुक्स पर उपलब्ध है।

फिल्म समीक्षा के क्षेत्र में एंड्रयू सेरिस के पूर्वग्रहों पर बात करनी जरूरी है क्योंकि वह आमजन की पसंद की समीक्षाएं नहीं लिखते थे। एंड्रयू सेरिस की समीक्षाएं कई बार कुछ इतनी तीखी होती थीं, कि उसे चाहे-अनचाहे नकारात्मक आलोचना की श्रेणी में रखना जरूरी हो जाता है। ऐसा क्यों था ? इसका एक कारण उनकी राजनीतिक विचारभूमि से आया दिखता है। ‘द विलेज वाॅयस’ अमेरिका में 1950 के मैकार्थीवाद के विरोध में वाम विचारधारा को आवाज देने के लिए शुरू किया गया था और जाहिर है हाॅलीवुड के फिल्म व्यवसाय की बागडोर धनिक वर्ग के हाथ में थी, जो उस समय पूरी तरह सरकार के साथ था। हाॅलीवुड के कई स्क्रीन राइटर्स और निर्देशकों को मैकार्थीवाद के समय सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा था। ऐसे में बौद्धिक वर्ग का कुपित होना निश्चित था। कुछ ऐसे ही कारणों से ‘द विलेज वाॅयस’ का प्रकाशन शुरू हुआ था।

एंड्रयू सेरिस को उनकी लिखी पुस्तकों ‘द अमेरिकन सिनेमा: डायरेक्टर्स एंड डायरेक्शंस’ और फ्रांसीसी सिने समीक्षकों द्वारा पारिभाषित ‘आॅट्य’ (आॅथर) थ्योरी को अमेरिकी समाज में प्रसारित करने के लिए याद किया जाएगा। ‘द अमेरिकन सिनेमा...’ में उन्होंने अपनी पसंद के मूक फिल्मों और कुछ बाद के 14 फिल्मकारों को शामिल किया था। बाद की पुस्तकों में उन्होंने कई अन्य फिल्मकारों के कार्यों की तीखी आलोचना की थी, जिनमें डेविड लीन, बिली वाइल्डर और स्टेनले क्यूब्रिक प्रमुख थे। कुछ ऐसे ही पूर्वग्रहों के कारण उन्हें अक्सर सिने समीक्षा के इतिहास की सबसे बड़ी हस्ती मानी जाने वाली पाउलिन केल का नंबर एक प्रतिद्वंद्वी भी माना जाता था, जो स्वयं कई नामी फिल्मकारों को अपनी समीक्षा के कठघरे में खड़ा रखती थीं।

आॅट्य थ्योरी का अर्थ सीधे-सीधे लेखक से लिया गया है। फ्रांसीसी फिल्म समीक्षकों ने 1950 के दशक की शुरुआत में ‘काजे द्यू सिनेमा’ नामक गहन बौद्धिक सिने पत्रिका में घोषित किया था कि निर्देशक ही फिल्म का लेखक होता है। इस विचार को अमेरिकी और शेष यूरोपीय सिने समीक्षकों ने हाथों-हाथ लिया था। इस थ्योरी के पक्ष-विपक्ष में कई आवाजें उठीं, लेकिन इससे बड़े-बड़े फिल्मकार एकमत थे। सिने निर्देशकों की सबसे ऊंची पांत में रखे जाने वाले निर्देशकों को ‘आॅट्य’ ही कहा जाता है। 

यह थ्योरी अपने आप में एक ‘थ्योरी’ है या नहीं, इस पर कई आलोचकों ने अपने-अपने विचार दिए। बाद में सेरिस ने भी आॅट्यो के संबंध में अपने विचारों में कुछ बदलाव लाते हुए कहा था कि आॅट्य अपने आप में एक थ्योरी न होकर ‘तथ्यों का जमावड़ा, फिल्मों के पुनरुत्थान की याद दिलाना, जाॅनर्स के नवीनीकरण और निर्देशकों को पुनः पारिभाषित’ करने भर का प्रयास है। कहना न होगा कि इस कथित थ्योरी के ही अंतर्गत समय-समय पर अमेरिकी और यूरोपीय व अन्य कुछ देशों के समीक्षकों ने अपने सिनेमा की बुनियाद रह चुके निर्देशकों को आज तक सिने स्कूलों, किताबों और यहां तक कि अमेरिकी सरकार की नेशनल फिल्म लाइब्रेरी के मार्फत जिंदा रखा है, जहां अमेरिकी सिनेमा की आज तक की असाधारण कृतियों को विशुद्ध सरकारी प्रयास से भावी पीढि़यों के लिए सुरक्षित रखा जाता है। अफसोस सिर्फ इस बात का है कि हमारे देश में आॅट्यो विषय पर कभी कहीं कोई आवाज सुनाई नहीं पड़ी है।

एंड्रयू सेरिस की सिनेदृष्टि से सहमत या असहमत होना एक बात है, लेकिन समूचे अमेरिकी फिल्म समीक्षात्मक समाज पर उनके व्यापक असर को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उनकी मृत्यु के बाद कई अमेरिकी अखबारों ने उन्हें अब तक का सबसे बड़ा फिल्म समीक्षक भी घोषित किया है। हाल में पाउलिन केल की वृहद जीवनी भी प्रकाशित हुई है - पाउलिन केल: ए लाइफ इन द डार्क। उसकी समीक्षा करने वाले एक समीक्षक का कहना है - सही और बोझिल तरीके से कहीं रोचक अनुभव होता है गलत और रोमांचकारी तरीके से लिखी समीक्षा पढ़ना होता है। एंड्रयू सेरिस के पूर्वग्रह अपनी जगह रखें तो भी उनका फिल्म लेखन बेहद अनोखा, रोमांचकारी और ज्ञानप्रद होता था। उनको विनम्र श्रद्धांजलि।

मैंने माण्डू नहीं देखा

$
0
0

स्वदेश दीपक 

काल : 1990 नवंबर
स्थान : बताऊँगानहीं। 

Footfalls echo in the memory
Down the passage which we
Did not take
Towards the door we never
Penned in to the rose garden

- T S Eliot

मेरेऐनसामनेखड़ेहोकरउसनेकहा-

मैंनेमांडूनहींदेखा

यहमुझेबोलागयाउसकादूसरावाक्यथा।पहलेमेंनाटककोर्टमार्शलकीप्रशंसाकीथी।मैंनेछोटासाथैंक्सकहा।यहवाक्यकिमैंनेमांडूनहींदेखमेरेमस्ष्तिकपरअंकितनहींहुआ।क्योंकिअभीतकमेरेसारेसन्दर्भकोर्टमार्शलसेजुड़ु हुएथे।

मुझेअवाकदेखसमझगयीकिमैंनहींसमझा।मेरासामान्यज्ञानबढ़ाया- मांडूमध्यप्रदेशमेंरानीरूपमतिऔरबाजबहादुरकामहलहै।

जबबोलीतोसंयोगसेमुझेउसकेदाँतदिखगए, तारोंकेसेचमकते।मैं चौकस और चौकन्नाउसेध्यानसेपहलीबारदेखा।रीतिकालीनकवियोंकेनायिकाभेदसमझभीगए, यादभीगए।उसकासरमेरेकन्धेतक।मैंनेपुलोवरडालरखाथा, जोनवम्बरमेंडालनाचाहिए।उसनेसाड़ीडालरखीथी।काटनकीसाड़ीजोनवम्बरमेंनहींडालनीचाहिएथी।अभीतकअपनेअन्दरसेकोईखतरासिगनेलनहींमिला।हालाँकिमाथेमेंरखाहैंड-गेनेडहिलाजरूर।

इसेदेखकिसकीयादशिद्दतसेआयी ? लेकिनयादकेसाथचेहराक्योंनहींजुड़रहा ?

पहलीबारउसेध्यानसेदेखा।सूर्यरातकोउदयहोगया।साक्षातसूर्यःनारी-शरीरआकारमें।थोड़ीसीटेढ़ी-हुक्डनोज।गलेमेंकोईगहनाकलाइयोंमेंकोईचूड़ी।जोगनहैक्या ? वहमेरेसामनेखड़ीथीलेकिनसांसनहींलेरहीथी।उसकेआत्मविश्वासनेगवाहीदीकिकालगर्लनहीं।क्योंकिकाल गर्ल्ज नाटकदेखनेनहींआतीं, फिल्मदेखनेजातीहैं।वहतीससेऊपरतोहोगीही।मुझेसेदसवर्षछोटी।खतरासिगनेलमिले।सिडक्ट्रेसहै।हरहालतमेंसिडक्ट्रेस।ऐसीऔरतोंकेपासहथियारनहींहोते।फिरभीकरदेतीहैंक्षत-विक्षत।मुझेउनकाअनुभवहै।हमेशाबचकरनिकलगया।इसबारभीबचकरनिकलनेकापूर्णविश्वासथा।पक्काविश्वासथा।बीकोल्डएण्डक्रुअलविदहर।

एकदमयादगया।उसेदेखमुझेअपनीकहानीकिसीएकपेड़कानामलोकीमायाबख्शीयादगयी।कभीकमरेमेंचलतासूरजकभीसोफेमेंबैठासूरज।अत्यन्तलम्बादुःखजीरहीमायाबख्शी।मिलनेकेअन्तिमक्षणमेंउसकेप्रेमीकोफाँसीलगवादी।सचसुनकरशिलितहोगयीमायाबख्शी।रोभीसकीथी।क्याकहाथानिर्मलजीनेयहकहानीसुनकर- स्वदेशतुम्हेंमायाछोड़ेगीनहीं।जोउसकाहैहासिलकरकेरहेगी।मैंकाँपाथा- दाँतदर्दसेअथवाभविष्यकीवाणीसे।लेखककेपासऐसाजिगराकहाँकिअपनेहीपात्रकासामनाकरसके।

मायाविनीएककदमऔरमेरेकरीबआयी।मैंने उसकेशरीरकीगन्धग्रहणकी।यहकिसीतरहकीपरफ्यूमथी।मैंनेअपनीकिलेबन्दीऔरमजबूतकी।दुर्गकामुख्यद्वारबन्दकरदिया।अबमैंझरोखेमेंखडाथा।वहकिलेकेबाहर।उसनेकहा - दिफोर्टइज सिम्बल आफलवआफरूपमतीएण्डबाजबहादुर।सूर्यअस्तहोनेकेबादकिलेमेंउनकीबातेंकरनेकीआवाजेंआतीहैं।

एकऔरखतरासिगनेल।इसक्षेत्रकेलोगशुद्धहिन्दीनहींबोलते।अंग्रेजीबोलने  मेंभीअलगप्रकारकालिल्ट-लयहै।तोक्याकिसीऔरलोकसेआयीहै ? पहलेमेरानाटकदेखने, फिरमुझेकिलेसेबाहरनिकालअपनेसुगन्धितकारावासमेंरखने।कहींयहमुझेतोतातोनहीं.....तोतातोहमारेराष्ट्रीय-मानसकास्थायीअंगहै।परीअथवाजादूगरनीहमेशाहमेंतोतेमेंबदल, पिंजरेमेंबन्दकरअपनीकैदमेंरखतीहै।

भविष्यसे

दोहजारकेफरवरीमासमेंअरुणकमलकेसाथदिल्लीमेंसतीशगुजरालकेचित्रोंकीप्रदर्शनीदेखी।कईचित्रोंमेंपिंजरेमेंबन्दतोतेकेपासखड़ीनायिका।अरुणजीसेपूछातोजवाबमिला: स्वदेशदा, मुझेचित्रकलाकाकोईविशेषज्ञाननहीं।हमारीलोककथाओंऔरपरियोंकीकहानीमेंहमेशातोताहोताहै।स्त्रीलिंगतोतानहीं।क्योंकिसौन्दर्यकाप्रतीकहैतोपुरुषनारीनहीं।औरनायिकाएँहमेशासुन्दरपुरुषकोवशमेंरखनाचाहतीहैं।असलीपुरुषसहीउसकासुन्दरप्रतीकतोताकैदकरलेतीहै।

अरुणकमलकोचित्रकलाकोज्ञाननहीं, फिरभीचित्रोंमेंकैदतोतेकोसिमबलकेरूपमेंठीकसेडिकोडकिया।कैसेकिया ? क्यामेरेबारेमें....डराहुआआदमीहमेशासंशयमें।मुझेठिठकाखड़ादेखउन्होंनेअपनीहिमाचलीटोपीकाकोणठीककियाजोपहलेसेहीठीकहै।सोचापूछूँइतनेदिनोंसेउसेक्योंपहलेहैं ? मिसलीडकरनेकेलिएवहबिहारकेनहींहिमाचलकेहैं।उनकीकवितामेंभीउनकीतरहकहीं-कहींहैइनडायरैक्श।इतनेगोरे-चिटटेमीठे वचनबोलतेकमलोगदेखेहैंबिहारसे।मुझेठिठका देख उन्होंनेपूछा - गलतकहामैंने ?

स्वदेशःठीककहाआपने।लेकिनयहबातमुझे 1990 मेंक्योंनहींबतायी।

अरुणसकतेमेंगया।तबकैसेबतातास्वदेशदा ? हमतोफरवरी 2000 मेंदोदिनपहलेमिले।

स्वदेशःबतादेतेतोबचगयाहोता।अरुणकमलकुछउदासहोगए।उन्हेंशायदलगाहोयहबातेंमेरीकिसीअसफलप्रेमकथासेजुड़ीहैं।लेकिननहीं।गहराईकेकविहैं।उन्हेंमालूमपड़गयाहोगायहबातेंमेरीआत्माकेसातसाललम्बेध्वंस की हैं।बिल्कुलअन्तरंगमित्रकीआवाजमेंबोले- स्वदेशआपमेरेयुवाअवस्थाकेदिनोंकेनायकहैं।तबमिलेहोतेतोक्योंबताता ? लेकिनकुछबातेंहोनीकाहिस्साहैं।इनकाघटनाहोगाही।

प्रसिद्द लेखक स्वदेश दीपक  के आत्म-वृतांत खंडित जीवन का कोलाज का एक अंश 

कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए

$
0
0
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए ।


जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए ।

खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए ।

दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए ।

लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो
शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए ।


ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है
यहाँ बबूल के साए में आके बैठ गए ।



दुष्यंत कुमार

कट चुके जो हाथ, उन हाथों में तलवारें न देख

$
0
0
आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख 


एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख 


अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह
यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख 


वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ ,उन हाथों में तलवारें न देख 


दिल को बहला ले इजाज़त है मगर इतना न उड़
रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख 


ये धुँधलका है नज़र का,तू महज़ मायूस है
रोज़नों को देख,दीवारों में दीवारें न देख 


राख, कितनी राख है चारों तरफ़ बिखरी हुई
राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख.


दुष्यंत कुमार

टीम अन्ना की वजह से यूथ का बेशकीमती गुस्सा बर्बाद हुआ

$
0
0
शैलेन्द्र नेगी


पिछले साल जब देश के मीडिया में टीम अन्ना और सरकार के बीच की अंताक्षरी चल रही थी तभी मुझे लग रहा था ऐसा कुछ भी है जो कमरों और फाईलों के अंदर चुपचाप चल रहा होगा। सरकार के सेक्रेट्रीज ने रिटेल में एफडीआई को बिना किसी शोर-शराबे के पास कर दिया। मीडिया को इतना बड़ा फैसला दिखा नहीं या जानबूझकर देखा नहीं- दोनों बातें अलग है। मेरा मत है जानबूझकर मीडिया ने इसे नजर अंदाज कर दिया और  मंत्रिमंडल ने भी इस बिल को मंजूरी दे दी। यह एक ऐसे बिल को मंजूरी थी जिसमें चार करोड़ लोगों के रोजगार को खत्म करने और उस पर पलते बीस करोड़ हिंदुस्तानियों को भिखारी की हैसियत में लाने की दुर्भावना भरी हुई थी। सरकार एनआरआई और कॉरपोरेट घरानों के इशारों पर नाचती हुई दिख रही है। नूरा कुश्ती लड़ते हुए बेशर्म जातिवादि नेता विपक्ष में होने का माखौल उड़ाते हुए। लेकिन इस बिल की पृष्टभूमि आंदोलन के समय ही रख दी गई थी और मुझे लगता है कि ये बात मुझे जरूर करनी चाहिये।


पिछले साल केजरीवाल और किरण बेदी की टीम के साथ उत्तर भारतीयों के लिए अजनबी अन्ना हजारे रामलीला मैदान पर धरना दे रहे थे। लहराते हुए तिरंगे के बीच अन्ना और बाद में नामित हुई टीम अन्ना के लोग हुंकार भर रहे थे। देश के मीडिया के फन्नें खां रामलीला मैदान को अपने ज्ञान और जोश के जज्बे से सराबोर कर रहे थे। देश के युवा अभिव्यक्ति के नये माध्यमों से इस पूरी मुहिम को अंजाम देने में जुटे थे। भ्रष्ट्राचार में आकंठ डूबे भावुक नौकरी पेशा लोग पूरी तरह से आंदोलित थे। टीवी चैनलों के ज्ञानी पत्रकार कदमताल करते हुए भीड़ का आकलन कई गुना कर रहे थे। इस दौरान सबसे खास बात थी कि इस शोर में विवेक की आवाज नहीं थी। जो भी आवाज गूंज रही थी वो या तो समर्थन में अंधी थी या फिर विरोध में। लेकिन इस पूरे माहौल को बनने से पहले ही मेरे एक दोस्त ने कहा था कि देश का युवा अगले चार-पांच महीने बाद एक सामूहिक अवसाद में डूबने वाला है। बेहद अजीब सी प्रतिक्रिया थी। इस बारे में किसी से कोई शब्द सुना नहीं था। ये बात लगभग चार अप्रैल की थी। जंतर-मंतर पर धरने की तैयारी चल रही थी। मैंने उस दोस्त से बात को थोड़ा स्पष्ट करने को कहा। उसका आकलन था देश में भ्रष्ट्राचार से आदमी परेशान है। मीडिया के पूरी तरह कॉरपोरेट के हाथों में खेलने या फिर उनके साथ साठ-गांठ करने के बावजूद कभी-कभी समीकरण गड़बड़ाने के चलते खबर छप ही जाती है। ऐसे में जो सूचना आम आदमी तक कानाफूंसियों के माध्यम से जाती थी अब वो सीधे पहुंच रही है। और उसके पहुंचने का समय भी बहुत कम हो गया। ऐसे में आम आदमी का रियेक्शन भी बहुत तेजी से आ रहा है। इतनी उथल-पुथल के बीच ऐसे आदमी जिनका संबंध अपर मीडिल क्लास का रहा हो या फिर जिनकी जिंदगी ऐश -ओ -आराम से कट रही हो वो लोग भ्रष्ट्राचार से परेशान लोगों के नायक बनकर कदमताल कैसे कर सकते हैं। देश के युवा के पास इस वक्त कोई आदर्श नहीं है।


मनमोहन सिंह और मोंटेक सिंह अहलूवालिया जैसे नायकों ने देश में आजादी से पहले और आजादी के बाद का अंतर ही खत्म कर दिया। आंदोलन को देख कर देश का युवा जरूर आदर्श की तलाश में इससे जुडेगा। युवाओं के लिए देश और परदेश में अंतर नहीं रह गया है और उसको हॉलीवुड की फिल्मों और देश के टीवी मीडिया से उपजी देशभक्ति की नयी धारा कि मौका मिलते ही तिरंगा लहराओं की धारणा को मजबूत करने लिए तेजी से इस आंदोलन के साथ जुड जाएँगा। लेकिन जैसे ही इस आंदोलन में शामिल लोगों की हकीकत सामने आएंगी वो तेजी से अवसाद में चला जाएगा। मेरे दोस्त की बातों का आधार था 1975 का जेपी मूवमेंट और उसके रणबांकुरों की गाथा। आय से अधिक संपत्ति के आरोपों से घिरे लालू यादव महज जातिवादी राजनीति का एक चेहरा भर हैं। कभी भदेस बातों और पहनावे से अपने आप को गरीब जनता से जोडने वाले लालू अपने गालों की चमक भर देख लें तो खुद शीशे से मुंह मोड़ लें। फिर दूसरा युवा आंदोलन हुआ वीपी सिंह का भ्रष्ट्राचार विरोधी मामला। लेकिन इस सफल लड़ाई का अंत हुआ मंडल के नाम पर उभर आए जातिवादी राजनेताओं के हुजूम को ताकत मिलने से। 


जेपी मूवमेंट के जहां महज 15 साल बाद जहां दूसरा आंदोलन खड़ा हो गया था यहां पूरे 22 साल लग गए दूसरे आंदोलन से जुड़ने वालों युवाओ की पीढ़ी सामने आने में। इस आंदोलन को लेकर अपनी राय रखने वाले मित्र की राय आंदोलन का नेतृत्व संभाल रहे केजरीवाल, किरणबेदी, प्रशांत और कुमार विश्वास के बारे में अपनी पुरानी जानकारियों के आधार पर थी। केजरीवाल खबरों में रहने के बेहद शौकीन है और उसके लिए कुछ भी कर सकते है, किरण बेदी के खिलाफ अपनी बेटी के मेडिकल में एडमिशन के लिए मिजो कोटे का इस्तेमाल करने का आरोप था। दोस्त का कहना था कि जिस अन्ना को ये लोग खोज कर लाए हैं उसका जादू कैमरों के आगे जबान खोलते ही टूट जाने वाला है। प्रशांत और शांतिभूषण की ईमानदारी पर सवाल उठाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। उन लोगों ने यदि पूरा टैक्स भी ईमानदारी से दिया है तो उसकी कीमत भी अरब में है। ऐसे में 30 परसेंट टैक्स देने के बाद जो संपत्ति बची उसकी कीमत कई अरब रूपये होगी। क्या इतनी मोटी कमाई करने वाले लोगों को गरीब लोगों के कष्ट में कितना दर्द होगा ये तो आप समझ सकते हैं। मेरे मित्र का आकलन था कि ये आंदोलन अन्ना के टीवी कैमरों पर मुंह खोलते ही खत्म हो जाएगा। टीवी चैनल्स ने अपने मुनाफे के लिए इस आदमी को जोकर में तब्दील कर देंगे। ऑन कैमरा और ऑफ कैमरा की जंग में एक दोयम प्रतिभा का आदमी सामने आ खड़ा होगा। तब इस पूरी लड़ाई के भेडियाधंसान में जाने का काम शुरू हो जाएगा। किरण बेदी के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज होने के बाद केजरीवाल के छुट्टियों पर घूमने औऱ उसका पैसा माफ करने की चिट्ठियों के बाद ये बात तो साफ हुई कि बौने लोग क्रांति का आह्वान कर रहे थे। क्रांति विफल हुई। टीम में एक गवैया गा रहा था होठों पर गंगा और हाथों में तिरंगा। बाद में पता चलता है कि कॉलेज में पढ़ाने की बजाय वो शख्स कवि सम्मेलनों और मंचों पर अपना वक्त गुजारता है। नोटिस जारी किया गया कॉलेज से। ये तमाम नायक जब सामने आयेंगे तो सरकार इनको पूरी तरह बदनाम कर देंगी। और फिर यूथ का वो बेशकीमती गुस्सा जो किसी भी देश की तकदीर बना सकता है जाया हो जाएगा। अपने में घिर कर उस युवा को ये समझ नहीं आयेगा कि के उसको बेवकूफ किसने बनाया-बौने नायकों ने विदेशी ताकतों के इशारों पर एनआरआई की तरह व्यवहार कर रही सरकार ने या फिर हमेशा अपने को जनता की आवाज बताने वाले बौने से मीडिया ने। इसके बाद वो युवा अपने खोल में सिमट जायेगा और या फिर अवसाद का शिकार होकर रास्ता भटक जाएगा। आज इस बात को खत्म हुए लगभग 10  महीने हो गये और लगता है कि दोस्त ने अपना आकलन कुछ ज्यादा ही सही किया था। एक बात और इस पूरी बातचीत के दौरान टीम अन्ना के एक साथी भी हमारे साथ थे जिनका ये मानना था कि जनता का दबाव उनके बौनों की लंबाई बढ़ा देगा। अब दोनों में किसका आकलन सही निकला ये आप सोच सकते हैं। मैं तो सिर्फ जर्मन कवि हांस माग्नुस एंत्सेंसबर्गर की एक कविता मध्यमवर्ग का शोकगीत से बात खत्म करता हूं...


हम फरियाद नहीं कर सकते
हम बेकार नहीं हैं
हम भूखे नहीं रहते
हम खाते हैं
घास बाढ़ पर है
सामाजिक उत्पाद
नाखून
अतीत
सड़कें खाली है
सौदे हो चुके हैं
साइरन चुप हैं
यह सब गुजर जायेगा
मृतक अपनी वसीयतें कर चुके हैं
बारिश ने झींसी की शक्ल ले ली है
युद्ध की घोषणा अभी तक नहीं हुई है
उसके लिए कोई हड़बड़ी नहीं है
हम घास खाते हैं/हम सामाजिक उत्पाद खाते हैं
हम नाखून खाते हैं/हम अतीत खाते हैं
हमारे पास छिपाने को कुछ नहीं है
हमारे पास चूकने को कुछ नहीं है 
हमारे पास कहने को कुछ नहीं है
हमारे पास है
घड़ी में चाबी दी जा चुकी है
बिलों का भुगतान किया जा चुका है 
धुलाई की जा चुकी है
आखिरी बस गुजर चुकी है
वह खाली है
 हम शिकायत नहीं कर सकते
हम आखिरकार किस बात का इंतजार कर रहें हैं ?

(यह पोस्ट मैंने अपने  ब्लॉग मीडियालोकमें पिछले साल नवम्बर में पोस्ट की थी. जो आज सच साबित हो रही है. तब इस लेख की प्रतिक्रिया में टीम अन्ना के  लोगों ने मुझे गालियां, धमकियां और न जाने क्या-क्या लिखा था. कुछ ने तो न लिखने तक की सलाह दे डाली थी..)

ये हम गुनाहगार औरतें हैं

$
0
0

ये हम गुनाहगार औरतें हैं
जो अहले जुब्बा की तमकनत से
न रौब खाएं न जान बेचें
न सर झुकाएं, न हाथ जोडें

ये हम गुनाहगार औरतें हैं,
के : जिनके जिस्मों की फसल बेचें जो लोग
वे सरफराज ठहरे न्याबतें इम्तियाज ठहरें
वो दावर-ए-अहल-ए-साज ठहरें

ये हम गुनाहगार औरतें हैं
के सच के परचम उठा के निकले
तो झूठ से शाहराहें अटी मिले हैं
जो बोल सकती थीं वो जबाने कटी मिली हैं
हर एक दहलीज पर सजाओं की दास्तानें रखी मिले हैं

ये हम गुनाहगार औरतें हैं
के : अब तअक्कुब में रात भी आए
तो ये आंखे नहीं बुझेंगी
के : अब जो दीवार गिर चुकी है
इसे उठाने की जिद न करना
ये हम गुनाहगार औरतें हैं
जो अहले जुब्बा  की तमकनत से
न रौब खाएं न जान बेचें
न सर झुकाएं, न हाथ जोडें

किश्वर नाहिद

यारब मुझे महफ़ूज़ रख उस बुत के सितम से

$
0
0

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार1 नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ

ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त2 की लज़्ज़त3 नहीं बाक़ी
हर चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ

इस ख़ाना-ए-हस्त4 से गुज़र जाऊँगा बेलौस5
साया हूँ फ़क़्त6, नक़्श7 बेदीवार नहीं हूँ

अफ़सुर्दा8 हूँ इबारत9 से, दवा की नहीं हाजित10
गम़ का मुझे ये जो’फ़11 है, बीमार नहीं हूँ

वो गुल12 हूँ ख़िज़ां13 ने जिसे बरबाद किया है
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार14 नहीं हूँ

यारब मुझे महफ़ूज़15 रख उस बुत के सितम से
मैं उस की इनायत16 का तलबगार17 नहीं हूँ

अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़18 की कुछ हद नहीं “अकबर”
क़ाफ़िर19 के मुक़ाबिल में भी दींदार20 नहीं हूँ

अकबर इलाहाबादी

शब्दार्थ: 1. तलबगार= इच्छुक, चाहने वाला; 2. ज़ीस्त= जीवन; 3. लज़्ज़त= स्वाद; 4. ख़ाना-ए-हस्त= अस्तित्व का घर; 5. बेलौस= लांछन के बिना; 6. फ़क़्त= केवल; 7. नक़्श= चिन्ह, चित्र; 8. अफ़सुर्दा= निराश; 9. इबारत= शब्द, लेख; 10. हाजित(हाजत)= आवश्यकता; 11. जो’फ़(ज़ौफ़)= कमजोरी, क्षीणता; 12. गुल= फूल; 13. ख़िज़ां= पतझड़; 14. ख़ार= कांटा; 15. महफ़ूज़= सुरक्षित; 16. इनायत= कृपा; 17. तलबगार= इच्छुक; 18. अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़= निराशा और क्षीणता; 19. क़ाफ़िर= नास्तिक; 20. दींदार=आस्तिक,धर्म का पालन करने वाला।

मूरत सँवारने से बिगड़ती चली गई

$
0
0

हालाते जिस्म, सूरते जाँ और भी ख़राब
चारों तरफ़ ख़राब यहाँ और भी ख़राब

नज़रों में आ रहे हैं नज़ारे बहुत बुरे
होंठों पे आ रही है ज़ुबाँ और भी ख़राब

पाबंद हो रही है रवायत से रौशनी
चिमनी में घुट रहा है धुआँ और भी ख़राब

मूरत सँवारने से बिगड़ती चली गई
पहले से हो गया है जहाँ और भी ख़राब

रौशन हुए चराग तो आँखें नहीं रहीं
अंधों को रौशनी का गुमाँ और भी ख़राब

आगे निकल गए हैं घिसटते हुए क़दम
राहों में रह गए हैं निशाँ और भी ख़राब

सोचा था उनके देश में मँहगी है ज़िंदगी
पर ज़िंदगी का भाव वहाँ और भी ख़राब

दुष्यंत कुमार

अभिजान (अभियान) १९६२

$
0
0

संदीप मुद्गल

अभिजान की कहानी को यदि एक वृताकार रूप में आभास करें तो उसके केंद्र में नायक नरसिंह (सौमित्र चटर्जी) है। इस तरह यदि नरसिंह यदि एक अणु है तो कथा के अन्य पात्र उसके चारों ओर इलेक्ट्राॅन-प्रोटोन की तरह घूमते हैं। नरसिंह का चरित्र एक कद्दावर व्यक्तित्व का मालिक लगता है। ऐसा है भी। वह एक राजपूत है और टैक्सी चलाता है। वह ईमानदार है, शायद जीवन संघर्षों के कारण या फिर अपनी शर्तों के अनुसार जीवन न जी पाने के कारण। इन्हीं कुछ कारणों से वह गुस्सैल है और अक्सर ंिहंसक भी हो उठता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो ऐसे चरित्र विपरीत परिस्थितियों में खुद को हमेशा सही ठहराते हुए दुनिया को लताड़ते दिखते हैं। बेशक वह अपने हालात में सुधार के लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाते, लेकिन ऐसे चरित्रों की असली रंगत तब पता चलती है जब उनकी दुनियावी परिस्थितियां उनके अनुसार ढलने लगती हैं।

ताराशंकर बंधोपाध्याय की कहानी पर आधारित सत्यजीत रे की फिल्म ‘अभिजान’ का केंद्रीय पात्र नरसिंह आमजन की शब्दावली में लगभग एक ‘बीमार’ मानसिकता का व्यक्ति कहा जा सकता है। दरअसल, अभिजान (अभियान) का समूचा कलेवर एक ‘थ्रिलर’ जैसा है। ऐसा नहीं कि सत्यजीत रे ने कभी रोमांचकारी फिल्में नहीं बनाईं। ‘सोनार केल्ला’, ‘जय बाबा फेलुनाथ’ आदि फिल्में उनके अपने जासूस चरित्र पर आधारित थीं, लेकिन अपने फिल्म निर्माण करियर के प्रथम दस वर्षों में ही उन्होंने एक ऐसी फिल्म बनाई जो कमर्शियल दायरे में एक सीमा तक फिट बैठती थी। 1950-60 के दशकों की बहुसंख्य बांग्ला फिल्में तात्कालिक हिन्दी फिल्मों से ही प्रेरित थीं। यह एक ऐसा सच है जो जग-जाहिर है। अभिजान इस पैराए में तो आती है, परंतु फिर भी वह एक पूर्णतया कमर्शियल चित्र नहीं है।

अभिजान एक मनोवैज्ञानिक चित्र है। यों सत्यजीत रे की सभी फिल्मों में मनोवैज्ञानिक तत्वों की भरमार है। या कहें कि वह मुख्यतः घटनाओं और पात्रों का मनोवैज्ञानिक चित्रण ही करते थे, तो गलत नहीं होगा। अभिजान का पहला दृश्य ही नरसिंह के मनस को पढ़ने का पहला पाठ बनता है। एक टूटे शीशे में दिखता उसका चेहरा और पर्दे पर मुख्य रूप में उससे बात करता एक अन्य व्यक्ति, जो नरसिंह की मजबूरी पर हंस रहा है। नरसिंह पूरी दुनिया से लड़ कर थका-मांदा बैठा शराब पी रहा है। इसी दृश्य के एक संवाद में वह ‘सब साला बेईमान’ तक कह डालता है। जाहिर सी बात है कि नरसिंह यदि क्रोधी स्वभाव का है तो वह अन्य व्यक्तियों पर भरोसा भी बहुत जल्दी कर लेता है। पहले दृश्य की समाप्ति पर वह बेशक उस मित्र का व्यावसायिक प्रस्ताव ठुकरा देता है, परंतु शीघ्र ही एक शातिर व्यापारी की मीठी बातों पर भरोसा कर बैठता है। वह व्यापारी उसे अपने यहां रहने, खाने, काम करने और गाड़ी ठीक कराने का प्रस्ताव देता है।

अभिजान की कई अंतर्कथाएं हैं। इन अंतर्कथाओं के केंद्र में भी नरसिंह है और वह कई नए पात्रों से मिलता है। अपने एक जानने वाले ड्राइवर के परिवार से भी वह मिलता है, जिसमें उस व्यक्ति की मां और बहन हैं। यह एक दलित-ईसाई परिवार है। नरसिंह अपने उस मित्र की बहन नीली (रुमा गुहा ठाकुरता) की ओर गहराई से आकृष्ट होता है। वह परिवार काफी हद तक समाज में किनारे पर पड़ा है। एक अन्य कहानी गुलाबी (वहीदा रहमान) की है। गुलाबी को नरसिंह का नया मालिक सेठ किसी गांव से बहला-फुसला कर लाया है। वह उसे अपने व्यावसासिक साथियों को मनोरंजन के लिए सौंपना चाहता है। गुलाबी एक अनोखा चरित्र है। वह अपनी इज्जत बचाने के लिए नरसिंह की ओर आकृष्ट होती है और उसे अपने जीवन की कहानी सुनाती है। इस तरह एक प्रेम त्रिकोण बनता है, जो कमर्शियल फिल्मी दायरे के लिए मुफीद है।

इसके अलावा, अभिजान एक अपराध कथा भी है। नरसिंह उस सेठ के यहां काम करना शुरू कर देता है। सेठ जरायमपेशा किरदार है। नरसिंह को भी उसी काम में लगना पड़ता है, जबकि इसी बीच उसकी प्रेम भावनाएं भी प्रबल हो उठती हैं। गुलाबी उसे वहां से निकल चलने को कहती है, लेकिन वह मजबूर है। नीली के एक अन्य व्यक्ति के प्रति चाहत का पता चलते ही उसका विचार कुछ बदलने लगता है।

फिल्म में बिहार और बंगाल की सीमा का परिवेश दिखाया गया है। खास बात यह है कि इसके चरित्र भी अपने आप में काफी रंग-बिरंगे दिखते हैं। यहां रंग-बिरंगे से तात्पर्य फिल्म में दिखाई देने वाली उनकी साज-सज्जा से न होकर उनके हाव-भाव और बोलचाल से है। फिल्म श्वेत-श्याम चित्र है। एक अन्य खास बात है फिल्म के संवाद, जो आंधे बांग्ला में हैं और शेष भोजपुरी व हिन्दी में। इस हिसाब से अभिजान का फलक कई संस्कृतियों को पाटता है। परंतु मूल में अभिजान एक सामाजिक कथा है और रे की अन्य फिल्मों की तरह इसमें भी कई स्थानों पर बिंब विधान प्रबलता से दिखता है। फर्क यह है कि यहां राय ने कुछ सीधे-सरल बिंब इस्तेमाल किए हैं। वह किसी दृश्य के बीच में या अंत में बात पूरी करने के लिए बिंब का सहारा यदा-कदा ही लेते हैं। उदाहरण के तौर पर दुबराजपुर की पहाड़ियां (विशालकाय पत्थर) फिल्म में अक्सर दिखाई पड़ते हैं। राय का कैमरा नरसिंह के मनोभावों के अनुसार उन पहाड़ियों को दिखाता है।

पहली बार वह पहाड़ियां तब दिखती हैं, जब नरसिंह सेठ और गुलाबी से रात गए पहली मुलाकात के बाद उन्हें गाड़ी में उनके ठिकाने तक पहुंचाता है। दृश्य में राय का कैमरा पहाड़ियों के फैलाव को सीधे-सीधे पीछे की ओर भागते दिखाता है। नरसिंह भी लगभग एक कौतुहलपूर्ण शून्य दृष्टि से पहाड़ियों को देखता आगे बढ़ जाता है। दूसरी बार यह पहाड़ियां तब आती हैं जब नरसिंह अपने ईसाई मित्र (जोसेफ) के साथ उन्हें खासतौर पर देखने जाता है। इस दृश्य में वह पहाड़ियों के बीचों-बीच खड़ा है, कुछ प्रसन्न, कुछ निराश, कुछ औचक और कुछ हद तक क्षणिक स्थायित्व सा महसूस करता हुआ! उन सूखे पत्थरों पर कई नाम भी गुदे हैं, जो उसका मित्र दिखाता है।

अभिजान का सामाजिक पक्ष ही उसका केंद्र बिंदु है। ऊपर से देखने में कहानी कुछ विरोधाभासी भी प्रतीत होती है। एक राजस्थानी राजपूत नरसिंह, जो बंगाल में रहता है और टैक्सी चलाता है और बहुत फर्राटेदार बांग्ला बोलता है। वह असामाजिक नहीं है, लेकिन अपनी अकड़ में रहता है। उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया अक्सर बहुत उग्र रहती है। सत्यजीत राय के फिल्म संसार में नरसिंह जैसे उग्र चरित्र बहुत कम देखे गए हैं। हिंसा का स्थान अक्सर राय की फिल्मों में नहीं दिखता। ऐसा नहीं कि वह शारीरिक हिंसा दिखाने से बचना चाहते हैं, (अभिजान में शारीरिक हिंसा का दृश्य है जो राय की सभी फिल्मों में अपनी तरह का अकेला है) दरअसल, हिंसा का स्थान किसी भी विवाद को सुलझाने की क्रिया में सबसे अंतिम होता है, इसलिए मानवीय मूल्यों को प्राथमिकता देने वाला रे जैसा रचनाकार हिंसा तक पहुंचने से पहले ही उसके अनेक पूर्ववर्ती परोक्ष रूप दिखा चुका होता है। 

अभिजान में भावनाओं का तीव्र उद्वेलन है, विशेषकर नरसिंह के चरित्र में। नरसिंह अपनी पहचान पाने के लिए भटक रहा है। वह बड़े अफसरों की गाड़ियां चलाता रहा है और शायद यही कारण है कि अंग्रेजी भी सीखना चाहता है। यह उसकी हीन ग्रंथि भी है। अपनी असफल कोशिशों के बाद वह नीली से भी कुछ देर को अंग्रेजी सीखता है। नीली उससे आकर्षित नहीं है, उसका एक अपाहिज मित्र है, जिसे वह चाहती है, वह बौद्धिक तौर पर भी उसके समांतर है। वहीं नरसिंह की बौद्धिक समकक्ष गुलाबी है, जिसे उसको समझने में कुछ समय लगता है।

निर्देशक सत्यजीत रे यहां चरित्र की पहचान में हो जाने वाली भूल या देरी का भी खुलासा करते हैं। यही मानव मनोविज्ञान का वह रूप है जिसके लिए उनके जैसे निर्देशक जाने जाते हैं। वह इसे नितांत मानवीय सीमा के तौर पर दिखाते हैं। शायद यह कमी हरेक इनसान में होती है और अपने उस निकटस्थ को नहीं पहचान पाता जो उसका सबसे बड़ा हितैषी है! यही कारण है कि नरसिंह गुलाबी का प्यार न पहचान पाने के कारण यहां-वहां भटकता रहता है। एक रात उसके साथ बिताने के बाद और गुलाबी द्वारा सीधे-सीधे उसके साथ जीवन बिताने की बात कह देने के बाद भी वह अपने आर्थिक भविष्य की चिंता में डूबा रहता है। यहीं से नरसिंह के चरित्र में एक सौम्य बदलाव भी दिखता है। वह अंतिम बड़े फैसले के काफी निकट जा पहुंचता है।

अभिजान के कुछ अन्य प्रमुख पात्र भी हैं, जैसे नरसिंह का साथी और गाड़ी क्लीनर रामा (राबी घोष)। रामा को जब-तब कुछ मजाहिया दृश्यों के लिए रखा गया दिखता है। लेकिन साथ ही उसे अक्सर नरसिंह का कोपभाजन भी बनना पड़ता है। रामा नरसिंह को अच्छी सलाहें भी देता रहता है, लेकिन क्रुद्ध स्वभाव के कारण नरसिंह उसे अनसुना कर देता है। राबी घोष का अभिनय बेहतरीन है, वह मूलतः हास्य अभिनेता थे, लेकिन यहां उनका चरित्र हास्य प्रधान होते हुए भी गंभीर है। वहीं गुलाबी की भूमिका में वहीदा रहमान बहुत स्वाभाविक नजर आती हैं। गुलाबी से मिलना नरसिंह की प्राकृतिक परिणति भी रहती है। इसलिए कहना न होगा कि गुलाबी जैसे चरित्रों का नरसिंह सरीखे यायावर व्यक्तित्वों के जीवन में सही समय पर न आना उनके शीघ्र अंत का कारण भी बनता है।

अभिजान की तेज गति का सबसे बड़ा बिंब नायक नरसिंह की टैक्सी है। निर्देशक ने देहाती इलाके में दौड़ती टैक्सी के रूप 1930 के क्राइस्लर माॅडल का इस्तेमाल किया था। रे की अन्य शुरुआती फिल्मों में भी किसी एक स्थान या वस्तु विशेष को केंद्रीय पात्र के तौर पर दिखाया गया था - ‘पाथेर पांचाली’ में यदि खुद गांव एक चरित्र है तो ‘अपराजितो’ में बनारस। ‘जलसा घर’ में जमींदार की रंगशाला एक पात्र है तो ‘कंचनजंघा’ में खुद पर्वत और उसके टेढ़े-मेढ़े रास्ते मानव चरित्रों के साथ-साथ अपनी कहानी भी सुनाते हैं। इस तरह अभिजान की कहानी में टैक्सी भी एक चरित्र है। इस गाड़ी का सड़क पर दौड़ना ही फिल्म को स्वतः एक गति देता है। इसके अलावा, गरम मिजाज नायक नरसिंह की घोर असंतुष्टि और अंतद्र्वंद्व भी फिल्म को गति देते हैं। यही दो ‘तत्व’ अभिजान के कथानक के मूल में हैं। फिल्म की लोकेशन भी उसे गति देने में सहायक बनती है। यानी रे का चिर-परिचित कलात्मक स्वरूप अपने मूल में यहां कहीं दूर खड़ा दिखता है। वहीं ऐसा भी नहीं कि फिल्म की कलात्मकता के साथ कोई समझौता हुआ हो। अनेक दृश्य राय की निर्देशकीय कुशलता का प्रमाण हैं। साथ ही पाश्र्व संगीत अगर कुछ शुरुआती टैक्सी के दृश्यों में एक पल को गंभीर गूंज सुनाता है तो दूसरे ही पहल वह अनेक हास्य लहरियों में बदल जाता है, जिसे सहयोग देने के लिए निर्देशक कुछ ठेठ गंवई पात्रों का सहारा लेता है, जो टैक्सी में बैठे अपना राग अलाप रहे हैं।

दरअसल, ऐसी ही एक संगीतिक कलात्मकता का अद्भुत उदाहरण नरसिंह और नीली के दृश्य में आता है। रविवार की एक सुबह नीली गिरजा जा रही है और उसे रास्ते में नरसिंह मिलता है। गिरजे तक का पैदल रास्ता है जो खुले मैदान से होकर जाता है। दूर से नरसिंह और नीली का बातें करते हुए गिरजे की ओर चलते आने के पाश्र्व में वहां की घंटियों की आवाज लगातार सुनाई पड़ती है जो उनके आगे बढ़ते जाने के साथ धीरे-धीरे तेज होती जाती है। प्रार्थना स्थल के घंटों की एकरस आवाज का इतना कुशल और सुरीला इस्तेमाल पर्दे पर बहुत कम देखा गया है। दृश्य में नरसिंह और नीली के बीच अन्य बातों के अलावा सच-झूठ की समझ को लेकर भी बात होती है, जो नरसिंह के लिए एक इशारा होती है, जिसे वह समझ नहीं पाता। इसी दृश्य में दूर नरसिंह और नीली से कुछ आगे उसका अपाहिज मित्र भी बैसाखियों के सहारे चला जा रहा है। उसे भी निर्देशक कैमरे की जद में रखता है। गिरजा के काफी निकट पहुंचने, बातें समाप्त होने और नीली द्वारा विदा लेने के दौरान दूर चला जा रहा उसका मित्र दृश्य में साफ दिखता है। तकनीकी दृष्टि से ऐसे दृश्यों को ‘डीप फोकस’ की श्रेणी में रखा जाता है, लेकिन एक आम दर्शक के लिए वह दृश्य बहुत अधिक कुछ कह जाता है। इस दृश्य में रे की सिने कलात्मकता पूरे चरम पर होती है। लोकेशन, कैमरा, संवाद, अभिनय, पाश्र्व संगीत, मानवीय भंगिमाएं, प्रेमासक्ति (नरसिंह), तटस्थता (नीली), मजबूरी और वितृष्णा (नीली का अपाहिज मित्र) का अद्वितीय संगम है यह दृश्य।

नरसिंह के चरित्र में सौमित्र चटर्जी पर बात करनी सबसे जरूरी है। सौमित्र चटर्जी सत्यजीत रे के ‘रेगुलर’ थे। 1959 में ‘अपुर संसार’ से अपने फिल्म करियर की शुरुआत के बाद उन्होंने राय की कुल जमा चैदह फिल्मों में काम किया। इस ऋंखला में ‘अभिजान’ तीसरी फिल्म थी। अपने व्यक्तित्व में सौमित्र चटर्जी काफी कुछ सत्यजीत रे से मेल खाते हैं। लंबे, पतले, मृदुभाषी और साहित्य प्रेमी चटर्जी ने अपने अभिनय करियर में विविध चरित्र निभाए हैं, लेकिन नरंिसह जैसा किरदार उन सबमें अकेला है। नरसिंह लगभग एक प्रतिनायक है। सही और गलत के सदा से अनुत्तरित रहे दार्शनिक प्रश्न में उलझा हुआ, अपनी तलाश और उस मिथकीय स्थायित्व की तलाश में भटक रहा है!

सौमित्र चटर्जी ने नरसिंह का चरित्र अपनी ओर से कुशलता से निभाया है, लेकिन एक गरम मिजाज राजस्थानी राजपूत के चरित्र में पूरी तरह फिट नजर नहीं आते। उनको चरित्र निभाने के लिए दिया गया मेकअप भी कई बार नकली लगता है। दूसरे, चटर्जी की बाॅडी लैंग्वेज (देहभाषा) एक राजस्थानी राजपूत की देहभाषा के हिसाब से कमजोर दिखती है। यहां सोनार केल्ला का बलिष्ठ टैक्सी डाइवर अपने आप याद आ जाता है। फिल्म के लांग शाॅट्स में ऐसा ही लगता है। हालांकि क्लोजअप दृश्यों में वह अपने भावप्रवण चेहरे से सारी बात कह जाते हैं। उनके चेहरे पर उठते-गिरते भाव क्लोज शाॅट्स में बहुत खूबी से सामने आते हैं, लेकिन लांग शाॅट्स में यह प्रक्रिया कमजोर पड़ती दिखती है।

नरसिंह के चरित्र का दूसरा पक्ष है, उसका हुलिया, जिसे निर्देशक ने एक विशेष ‘लुक’ देने का प्रयास किया है। दाढ़ी-मूंछ और भारी भौहों के पीछे छुपा सौमित्र चटर्जी का मासूम चेहरा छुपाए नहीं छुपता। पहली बार अपने मित्र जोसेफ से मिलने पर और चाय पीते हुए उसके बारे में जानने पर चटर्जी की चिर-परिचित शर्मीली मुस्कान दाढ़ी के पीछे से उभर आती है। एक क्रुद्ध और नाराज मानसिकता का व्यक्ति अपने मूल में शर्मीला हो सकता है, लेकिन चटर्जी की अत्यधिक शर्मीली मुस्कान दृश्य को नुकसान पहुंचाती है। यह मुस्कान अधिक पल नहीं ठहरती, लेकिन पूरे दृश्य पर एक ऊपरी पैबंद सी लगती है। कुछ अन्य दृश्यों में भी ऐसी ही कमी झलकती है। किसी पुराने मित्र से विशेष मनःस्थितियों में मिलने पर प्रत्येक व्यक्ति की प्रतिक्रिया बेशक अपनी ही होगी, लेकिन एक कथित उग्र व्यक्तित्व की मुस्कान मात्र यहां पूरे दृश्य को डांवाडोल कर देती है। सौमित्र चटर्जी को नरसिंह की भूमिका देकर निर्देशक रे साहसिकता का परिचय देते हैं। उन्हें चटर्जी की अभिनय प्रतिभा पर अत्यधिक भरोसा था, और इसमें कोई शक भी नहीं कि चटर्जी असाधारण अभिनेता हैं। वह अपने ही शब्दों में ‘जीवन सदृश’ अभिनय करने का प्रयास करते रहे हैं। वह रोजमर्रा के चरित्रों का निरूपण कुशलता से करते हैं।

नरसिंह भी रोजमर्रा का पात्र है, असाधारण पात्र नहीं है। परंतु उसकी रोजाना की पहचान के पीछे छुपी है उसकी अहंकारिक गं्रथि, जिससे वह केवल अपने दम पर पार नहीं पा सकता! फिल्म के अधिकांश हिस्से में उसकी यही ग्रंथि अपने उग्र रूप में दिखती है, जिसे निबाहते समय अभिनेता चरित्र की भौतिक भंगिमा पर पूरी पकड़ नहीं रख पाता। यहां मुख्य कमी निर्देशकीय है। निर्देशक सत्यजीत रे को नरसिंह के चरित्र के लिए एक ऐसा अभिनेता चाहिए था जिसके व्यक्तित्व में दो विरोधी रूपों का समावेश हो। शारीरिक सौष्ठव और रूखा परंतु भावपूर्ण चेहरा! छोनों ही स्तरों पर चटर्जी असफल नजर आते हैं। कुछ दृश्यों में यदि कैमरा उनके चेहरे से मन की बात को सामने रखता भी है, तो अगले ही दृश्य में देहभाषा की कमजोरी फिर से झलक उठती है। यहां यह सोचना भी गलत न होगा कि चटर्जी के अतिरिक्त और कौन सा अभिनेता उस समय इस चरित्र को और बेहतरी से निभा सकता था ? यह देहभाषा की कमी ही कही जाएगी कि चटर्जी फिल्म के एक हिंसा प्रधान दृश्य में अपने विरोधी से कहीं कमजोर दिखते हैं, जो खुद शारीरिक तौर पर अधिक प्रभावशाली नहीं दिखता!

फिल्म में सत्यजीत रे ने लोकेशन का पूरा इस्तेमाल किया है। वह क्षेत्र विशेष के लैंडस्केप का व्यापक हिस्सा कैमरे की पकड़ में लाते थे। पात्रों की गहराई को स्थान के फैलाव के समकक्ष रखकर तौला जा सकता है। फिल्म की शुरुआत में कार और रेल की रेस का दृश्य यदि चरित्र चित्रण का एक गहरा पक्ष उजागर करता है तो दोनों गाड़ियों के बीच फैले खलिहान क्षेत्र की विशेषता को इंगित करने की निर्देशकीय मंशा को भी दर्शाते हैं। रे केवल पात्रों और कथानक के ही नहीं, अपने पात्रों की रंगभूमि बने स्थान विशेष के प्रति भी उतना ही गहरा चिंतन करते थे। इसके दृष्टांत उनकी फिल्मों में फैले हैं, फिर वह चाहे दूर-दराज के खुले मैदान हों या बड़े शहरों की संकरी और बजबजाती गलियां। राय घर और बाहर दोनों स्थानों की विशेषता के जरिए अपनी कहानी कहते हैं।

अभिजान सत्यजीत रे के फिल्म संसार में उनके मूल ‘सांस्कृतिक’ कलेवर से अलग हटकर नजर आती है। परिवेश की दृष्टि से अभिजान से गुजरना कस्बाई जीवन को निकट से देखना है। विशुद्ध कस्बाई छाप लिए हुए अनेक दृष्टांत फिल्म में हैं। नरसिंह और रामा का एक होटल में खाना खाने का दृश्य ऐसा ही है जिसके पाश्र्व में रेडियो पर चलने वाली लोक मिश्रित धुन का गीत उस पूरे सीक्वेंस को ठेठ कस्बाई माहौल में बदल देता है।

यह फिल्म सत्यजीत रे के फिल्म जगत में लीक से हटकर दिखती है। यह कहना गलत नहीं होगा कि ‘कलात्मकता’ और ‘शास्त्रीयता’ की पहचान सत्यजीत रे पर कुछ इतनी गहरी लगी थी कि वह अक्सर यथार्थवाद, वह भी शहरी या कस्बाई यथार्थवाद में कई लोगों की राय में ‘आउट आॅफ प्लेस’ दिखते थे। अभिजान के साथ-साथ उनकी कलकत्ता त्रयी में भी जब वह आजीविका संघर्ष की लगभग क्रूर और कभी न खत्म होने वाले बहाव को दिखाते हैं, तो उनसे ‘शास्त्रीयता’ की चाह रखने वाले दर्शक कई बार बौखला जाते थे। लेकिन एक कलाकार के तौर पर सत्यजीत रे की कला का दायरा इन फिल्मों से कहीं व्यापक फलक प्राप्त करता है और इसकी शुरुआत अभिजान से ही हुई थी।

हम खड़े थे कि ये ज़मीं होगी...

$
0
0
आज वीरान अपना घर देखा
तो कई बार झाँक कर देखा

पाँव टूटे हुए नज़र आये
एक ठहरा हुआ सफ़र देखा

होश में आ गए कई सपने
आज हमने वो खँडहर देखा

रास्ता काट कर गई बिल्ली
प्यार से रास्ता अगर देखा

नालियों में हयात देखी है
गालियों में बड़ा असर देखा

उस परिंदे को चोट आई तो
आपने एक-एक पर देखा

हम खड़े थे कि ये ज़मीं होगी
चल पड़ी तो इधर-उधर देखा.

दुष्यंत कुमार

आज पानी गिर रहा है

$
0
0
आज पानी गिर रहा है
बहुत पानी गिर रहा है
रात भर गिरता रहा है
प्राण मन घिरता रहा है

अब सवेरा हो गया है
कब सवेरा हो गया है
ठीक से मैंने न जाना
बहुत सोकर सिर्फ़ माना

क्योंकि बादल की अँधेरी
है अभी तक भी घनेरी
अभी तक चुपचाप है सब
रातवाली छाप है सब

गिर रहा पानी झरा-झर
हिल रहे पत्ते हरा-हर
बह रही है हवा सर-सर
काँपते हैं प्राण थर-थर

बहुत पानी गिर रहा है
घर नज़र में तिर रहा है
घर कि मुझसे दूर है जो
घर खुशी का पूर है जो

घर कि घर में चार भाई
मायके में बहिन आई
बहिन आई बाप के घर
हाय रे परिताप के घर !

आज का दिन दिन नहीं है
क्योंकि इसका छिन नहीं है
एक छिन सौ बरस है रे
हाय कैसा तरस है रे

घर कि घर में सब जुड़े है
सब कि इतने कब जुड़े हैं
चार भाई चार बहिनें
भुजा भाई प्यार बहिनें

और माँ‍ बिन-पढ़ी मेरी
दुःख में वह गढ़ी मेरी
माँ कि जिसकी गोद में सिर
रख लिया तो दुख नहीं फिर

माँ कि जिसकी स्नेह-धारा
का यहाँ तक भी पसारा
उसे लिखना नहीं आता
जो कि उसका पत्र पाता ।

और पानी गिर रहा है
घर चतुर्दिक घिर रहा है
पिताजी भोले बहादुर
वज्र-भुज नवनीत-सा उर

पिताजी जिनको बुढ़ापा
एक क्षण भी नहीं व्यापा
जो अभी भी दौड़ जाएँ
जो अभी भी खिल-खिलाएँ

मौत के आगे न हिचकें
शेर के आगे न बिचकें
बोल में बादल गरजता
काम में झंझा लरजता

आज गीता पाठ करके
दंड दो सौ साठ करके
खूब मुगदर हिला लेकर
मूठ उनकी मिला लेकर

जब कि नीचे आए होंगे
नैन जल से छाए होंगे
हाय, पानी गिर रहा है
घर नज़र में तिर रहा है

चार भाई चार बहिनें
भुजा भाई प्यार बहिने
खेलते या खड़े होंगे
नज़र उनको पड़े होंगे ।

पिताजी जिनको बुढ़ापा
एक क्षण भी नहीं व्यापा
रो पड़े होंगे बराबर
पाँचवे का नाम लेकर

पाँचवाँ हूँ मैं अभागा
जिसे सोने पर सुहागा
पिता जी कहते रहें है
प्यार में बहते रहे हैं

आज उनके स्वर्ण बेटे
लगे होंगे उन्हें हेटे
क्योंकि मैं उन पर सुहागा
बँधा बैठा हूँ अभागा

और माँ ने कहा होगा
दुःख कितना बहा होगा
आँख में किस लिए पानी
वहाँ अच्छा है भवानी

वह तुम्हारा मन समझ कर
और अपनापन समझ कर
गया है सो ठीक ही है
यह तुम्हारी लीक ही है

पाँव जो पीछे हटाता
कोख को मेरी लजाता
इस तरह होओ न कच्चे
रो पड़ेंगे और बच्चे

पिताजी ने कहा होगा
हाय, कितना सहा होगा
कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ
धीर मैं खोता, कहाँ हूँ

गिर रहा है आज पानी
याद आता है भवानी
उसे थी बरसात प्यारी
रात-दिन की झड़ी झारी

खुले सिर नंगे बदन वह
घूमता-फिरता मगन वह
बड़े बाड़े में कि जाता
बीज लौकी का लगाता

तुझे बतलाता कि बेला
ने फलानी फूल झेला
तू कि उसके साथ जाती
आज इससे याद आती

मैं न रोऊँगा,- कहा होगा
और फिर पानी बहा होगा
दृश्य उसके बाद का रे
पाँचवें की याद का रे

भाई पागल, बहिन पागल
और अम्मा ठीक बादल
और भौजी और सरला
सहज पानी, सहज तरला

शर्म से रो भी न पाएँ
ख़ूब भीतर छटपटाएँ
आज ऐसा कुछ हुआ होगा
आज सबका मन चुआ होगा ।

अभी पानी थम गया है
मन निहायत नम गया है
एक से बादल जमे हैं
गगन-भर फैले रमे हैं

ढेर है उनका, न फाँकें
जो कि किरनें झुकें-झाँकें
लग रहे हैं वे मुझे यों
माँ कि आँगन लीप दे ज्यों

गगन-आँगन की लुनाई
दिशा के मन में समाई
दश-दिशा चुपचाप है रे
स्वस्थ की छाप है रे

झाड़ आँखें बन्द करके
साँस सुस्थिर मंद करके
हिले बिन चुपके खड़े हैं
क्षितिज पर जैसे जड़े हैं

एक पंछी बोलता है
घाव उर के खोलता है
आदमी के उर बिचारे
किस लिए इतनी तृषा रे

तू ज़रा-सा दुःख कितना
सह सकेगा क्या कि इतना
और इस पर बस नहीं है
बस बिना कुछ रस नहीं है

हवा आई उड़ चला तू
लहर आई मुड़ चला तू
लगा झटका टूट बैठा
गिरा नीचे फूट बैठा

तू कि प्रिय से दूर होकर
बह चला रे पूर होकर
दुःख भर क्या पास तेरे
अश्रु सिंचित हास तेरे !

पिताजी का वेश मुझको
दे रहा है क्लेश मुझको
देह एक पहाड़ जैसे
मन की बड़ का झाड़ जैसे

एक पत्ता टूट जाए
बस कि धारा फूट जाए
एक हल्की चोट लग ले
दूध की नदी उमग ले

एक टहनी कम न होले
कम कहाँ कि ख़म न होले
ध्यान कितना फ़िक्र कितनी
डाल जितनी जड़ें उतनी !

इस तरह का हाल उनका
इस तरह का ख़याल उनका
हवा उनको धीर देना
यह नहीं जी चीर देना

हे सजीले हरे सावन
हे कि मेरे पुण्य पावन
तुम बरस लो वे न बरसें
पाँचवे को वे न तरसें

मैं मज़े में हूँ सही है
घर नहीं हूँ बस यही है
किन्तु यह बस बड़ा बस है
इसी बस से सब विरस है

किन्तु उनसे यह न कहना
उन्हें देते धीर रहना
उन्हें कहना लिख रहा हूँ
उन्हें कहना पढ़ रहा हूँ

काम करता हूँ कि कहना
नाम करता हूँ कि कहना
चाहते है लोग, कहना
मत करो कुछ शोक कहना

और कहना मस्त हूँ मैं
कातने में व्यस्‍त हूँ मैं
वज़न सत्तर सेर मेरा
और भोजन ढेर मेरा

कूदता हूँ, खेलता हूँ
दुख डट कर ठेलता हूँ
और कहना मस्त हूँ मैं
यों न कहना अस्त हूँ मैं

हाय रे, ऐसा न कहना
है कि जो वैसा न कहना
कह न देना जागता हूँ
आदमी से भागता हूँ

कह न देना मौन हूँ मैं
ख़ुद न समझूँ कौन हूँ मैं
देखना कुछ बक न देना
उन्हें कोई शक न देना

हे सजीले हरे सावन
हे कि मेरे पुण्य पावन
तुम बरस लो वे न बरसे
पाँचवें को वे न तरसें । 


भवानीप्रसाद मिश्र 

बेगुनाह कौन है उस शहर में क़ातिल के सिवा

$
0
0

काम अब कोई न आयेगा बस इक दिल के सिवा
रास्ते बन्द हैं सब कूचा-ए-क़ातिल के सिवा

बाइस-ए-रश्क़ है तन्हारवी-ए-रहरौ-ए-शौक़
हमसफ़र कोई नहीं दूरी-ए-मंजिल के सिवा

हम ने दुनिया की हर इक शै से उठाया दिल को
लेकिन इक शोख़ के हंगामा-ए-महफ़िल के सिवा

तेग़ मुंसिफ़ हो जहाँ दार-ओ-रसन हों शाहिद
बेगुनाह कौन है उस शहर में क़ातिल के सिवा

जाने किस रंग से आई है गुलशन में बहार
कोई नग़्मा ही नहीं शोर-ए-सिलासिल के सिवा

 अली सरदार जाफ़री

काम वह आन पड़ा है कि बनाए न बने

$
0
0

नुक्ता-चीं है ग़म-ए दिल उस को सुनाए न बने
क्याबने बात जहां बात बनाए न बने

मैं बुलाता तो हूं उस को मगर अय जज़्बा-ए दिल

उस पेबन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने


खेल समझाहै कहीं छोड़ न दे भूल न जाए

काश यूं भी हो कि बिन मेरे सताए न बने

ग़ैर फिता है लिये यूं तिरे ख़त को कि अगर

कोई पूछे कि यह क्या  है तो छुपाए न बने

इस नज़ाकत का बुरा हो वह भले हैं तो क्या
हाथ आवें तो उन्हें हाथ लगाए न बने

कह सके कौन कि यह जलवा-गरी किस की है

पर्दाछोड़ा है वह उस ने कि उठाए न बने

मौत की राह न देखूं कि बिन आए न रहे
तुम को चाहूं कि न आओ तो बुलाए न बने

बोझ वह सर से गिरा है कि उठाए न उठे
काम वह आन पड़ा है कि बनाए न बने

इश्कपर ज़ोर नहीं है यह वह आतिश ग़ालिब

कि लगाए न लगे और बुझाए न बने

ग़ालिब 

*नुक्ताचीं = गलतियाँ निकालने वाला 

पर कहाँ पवित्र हुई है आत्मा अब तक

$
0
0
अनंत अज्ञात शून्य में
एक आवाज़ उठती है
अंतर के धरातल पर
दिन भर फुसफुसाती है
अन्दर ही अन्दर
रह रह कर
सहम कर डर कर
घुट कर बड़बड़ाती है
सभ्यता के शाश्वत प्रवाह में
डूब कर तिर कर
उठ कर गिर कर
किनारे बैठ कर
मैं आकाश को सुनाता हूँ
अपने स्वप्न देर तक

फिर जल कर तिल तिल
तप कर कण कण
पीट कर तार तार
यह देह अपनी
जलते हुए प्रश्न लेकर
झुलस गए हैं प्राण जिनमें
फिर वही तनाव बुन कर
फिर वही दबाव लेकर
अचिन्त्य की कल्पना में पक कर
झीने अदृश्य से परदे चीर कर
गाढ़ी अबूझ सी परतें पार कर
जिज्ञासा के प्रेम में बंध कर
आत्मा के धब्बे ले कर
संज्ञाशून्य चेतना में बह कर
फिर एक बार चला आता हूँ
भटक कर तुम्हारे दरवाजे पर 
कहाँ पवित्र हुई है आत्मा अब तक

दीपांकर

रूबरू : एस के पोत्तेक्कात्त

$
0
0


मलयालम के प्रख्यात लेखक एस के पोत्तेक्कात्त (१९१३-१९८२) सफल उपन्यासकार हैं | उनकी रचनाओं में जीवन का यथार्थ चित्रण मिलता है | कोषिक्कोद में जन्मे  पोत्तेक्कात्त का पूरा नाम शंकरन कुट्टी है | विश्व यात्रा करने के कारण उनकी रचनाओं में विशाल मानवीय दर्शन दिखाई देता है |


वे प्रगतिशील साहित्यिक आन्दोलन से जुड़े रहे हैं | उन्होंने मंदिरों में जा कर कवि बनने की प्रार्थना की, किन्तु बाद में वे कवि ह्रदय कथाकार बन गए | उन्होंने साहित्य से जीवन यापन करने  का निश्चय किया | मोपासां तालस्ताय दोस्तोवस्की गोर्की आदि की कृतियों से वे प्रभावित हुए |



उन्होंने अपनी बोली में ही साहित्य रचना की | कोषिक्कोद के मिठाई बाज़ार में जिन जिनसे मिले उन्हें अपनी कथा का पात्र बनाया | अपने जीवनानुभव के आधार पर लिखा उपन्यास उनकी प्रशस्ति का पात्र बना |



"नाडन प्रेमम"  "प्रेम शिक्षा"  "मूदुपदम"  "विषकन्यका"  "ओरु तेरुविन्ते कथा"  "कराम्पू"  "ओरु देशन्तिन्ते कथा"  "कुरुमुलक"  "कबीना"  आदि प्रमुख उपन्यास हैं | इसके अलावा २४ कथा संग्रह प्रकाशित हुए हैं | उनकी कृतियों का मुख्य स्वर मानव गरिमा है |  "ओरु देशन्तिन्ते कथा" को १९८० में ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला | वे चुनाव जीतकर सांसद भी रहे | संसदीय अनुभवों के आधार पर नार्थ अवेन्यु  नामक उपन्यास भी लिखना आरम्भ किया परन्तु उनकी मृत्यु के कारण वह पूरा नहीं हो पाया |

_______________________________________________________________

प्र : आपके लेखन कार्य का उद्देश्य क्या है ?

उ : आत्मसंतोष ही साहित्य सृजन का प्रमुख तत्व है | रचना में निमग्न होते समय साहित्यकार का ह्रदय एक विशेष प्रकार की प्रसन्नता से आप्लावित हो जाता है | इस प्रसन्नता और आनंद के भावों को पाठकों तक पहुंचा देने के लिए भी मन लालायित होता है ..निजी आनंद साहित्य सृजन का उद्देश्य है | इससे यह मत समझिये की मैं कला कला के लिए सिद्धांत का पक्षधर हूँ | समाज में परिलक्षित गंदगियों असमानताओं को दूर करने के लिए साहित्यकार को अग्रसर होना है | यह उसकी जिम्मेदारी है |


प्र : आप किन किन साहित्यकारों से प्रभावित हुए ? 


उ : पाश्चात्य साहित्यकारों से ही मैंने अधिक प्रेरणा ग्रहण की है | मोपासां तौल्स्तोय दोस्तोवस्की और गोर्की की साहित्यिक रचनाओं का असर मुझ पर पड़ा | उनकी रचनाओं के जनवादी स्वर ने मुझे अधिक आकृष्ट किया | लेकिन मैंने अभी तक किसी साहित्यकार का अनुकरण नहीं किया है |


प्र : समकालीन घटनाओं के इर्द गिर्द प्रणीत रचनाएँ ही प्रभावशाली बन सकती हैं | क्या इतिहास और पुराण के उप जीव्य आज अप्रासंगिक हैं ? 



उ : मेरा विचार है कि साहित्य समकालीन घटनाओं का कलात्मक प्रतिफलन है | लेकिन इतिहास और पुराण की कहानियों और विचारों को हम एकदम अप्रासंगिक नहीं कह सकते | उनका समावेश आधुनिक साहित्य में गलत और अवांछित नहीं है | उदाहरण के लिए महाभारत को ही लें | मानव जीवन के सारे उत्कृष्ट और निकृष्ट विचार और मनोभाव उसमें भरे पड़े हैं | आज हम उनकी स्तुति तो करते हैं लेकिन उनका अनुशीलन नहीं करते | इतिहास और पुराणोपाजीवी भावों और विचारों का पुनराख्यान आज आवश्यक है | इस पुनराख्यान के दौरान समकालीन संस्पर्श आ जायेंगे |

प्र : साहित्य में भोगे हुए यथार्थ पर ही जोर देने के लिए कुछ लोग आह्वान करते हैं | यह कहाँ तक संगत है ? 



उ : अनुभव साहित्यिक रचनाओं की धरोहर है | पाठकीय आस्वादन के दो स्तर है | रचना के प्रतिपाद्य में उसे आत्मानुभव का सा तादात्म्य उद्भासित करना है | इसके अतिरिक्त अपने लिए अपरिचित बातों को भी साहित्य के माध्यम से जानने के लिए वह उत्सुक होगा | एक भिखारी भी महल और मकानों की गतिविधियाँ जानने की इच्छा रखता है | साहित्यकार महल में रहनेवाला नहीं है फिर भी वह महल का वर्णन कर सकता है | अनुभव का धन सब लोगों के पास है लेकिन सब लोग उसकी अभिव्यक्ति नहीं दे सकते | संवेदनशील साहित्यकार ही यह कर सकता है | उदाहरनार्थ, क़ानून की किताबें कोई भी व्यक्ति खरीद सकता है लेकिन प्रसंगानुकूल धाराओं और अनुच्छेदों के सम्बन्ध में जानने के लिए एक वकील की सहायता आवश्यक है | अभियुक्त के लिए वाद विवाद करते समय वकील बहस इस प्रकार करता है मानों स्वयं वही अभियुक्त है | साहित्यकार भी इसी प्रकार दूसरों के अनुभवों पर कल्पना के रंग चढ़ाकर उनका वर्णन करता है |


प्र : प्रगतिवादी साहित्य के कर्णधारों ने यह धारणा फैलाई है कि केवल भूखे प्यासे लोगों को चित्रित करने वाली रचनाएँ ही सच्चा साहित्य होती हैं |



उ :  पूर्ववर्ती साहित्यकारों की रचनाओं का मानव जीवन से दूर का भी सम्बन्ध नहीं था | साहित्य को जन जीवन के निकट लाना प्रगतिवादिओं का चरम लक्ष्य था | इसे उन्होंने एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया | गर्भ स्तन आदि शब्द भी उस युग में असभ्य माने गए थे | जीवन की वास्तविकताओं और क्रन्तिकारी आन्दोलनों के समावेश से साहित्य को जनवादी बनाने के लिए बहुत तक अतिरंजनाएं आवश्यक हो गयी थी | यहाँ के एक प्रगतिवादी साहित्यकार केशवदेव ने रामायण को जलाया भी था लेकिन बाद में उन्होंने घोषित किया की रामायण एक अच्छी साहित्यिक रचना है |



प्र : साहित्यकार के जीवन दर्शन के स्वरूप पर आपके विचार क्या हैं ? क्या वह विकासशील रहेगा या सदैव एक जैसा ? 



उ : वह सदैव एक सा नहीं रहेगा | जीवन के भीतर आने वाले परिवर्तनों के अनुसार पीढ़ियों की अभिरुचियाँ भी बदल जाएँगी | पुरानी पीढ़ी का व्यक्ति कोका कोला को छोड़ कर कच्चे नारियल को चुनेगा और नयी पीढ़ी का व्यक्ति सीधा उल्टा भी करेगा | परिस्थितियों का ढांचा उसके लिए जिम्मेदार है | बुनियादी मूल्य हमेशा एक से ही रहेंगे | महाभारत में प्रस्फुटित स्नेह और ममता के भाव आज भी विद्यमान हैं | कालिदास की सी शाकुंतालायें आज भी मौजूद हैं ..वेश बदल गए होंगे मगर ह्रदय के भाव पुराने ही हैं |  इस प्रकार साहित्यकार के जीवन दर्शन का मूल रूप एक सा ही रहेगा | लेकिन वह विकासशील बन जायेगा |



प्र : सारे प्रकृष्ट लेखक काले अनुभवों से गुजरने वाले हैं | आपके सम्बन्ध में यह बात कहाँ तक लागू है ?



उ : काले अनुभवों का जुलूस मेरे जीवन में भी था | एक-आध बार साधू बन कर भी मैं यात्रा के लिए निकला | हिमालय की तराईयों और बनारस के घाटों की मैंने यात्रा की | बाद की साहित्यिक रचनाओं को इस समय के अनुभवों ने उत्तेजना दी |



प्र : आप कवि बनना चाहते थे, मगर बन गए कथाकार | क्या मार्ग परिवर्तन पर आपको आकुल होना पड़ा है ?



उ : मैं इस पर कतई आकुल नहीं हूँ | अपने अनुभवों भावों और विचारों को व्यापक ढंग से अभिव्यक्ति देने के लिए कथा साहित्य का माध्यम अधिक सक्षम है | हमारे यहाँ के अधिकांश साहित्यकारों के लिए साहित्य एक उप व्यवसाय है, जीवन यापन के लिए अतिरिक्त मार्ग है | मैं उस किस्म का आदमी नहीं हूँ |



प्र : यदि लेखक चाहता है तो वह एकाधिक शैली में लिख सकता है |



उ : हर लेखक की अपनी खास शैली होती है | उससे हटकर ईमानदार साहित्यकार दूसरी शैली का प्रयोग नहीं कर सकता | एक साहित्यकार की दो शैलियाँ होने का अर्थ है कि उसकी अपनी मौलिक शैली है ही नहीं |



प्र : आधुनिक साहित्यकार दुखोपासक और पलायनवादी लगते हैं | क्या इनका जीवन निषेध सकारण है ?



उ : इनकी दुखोपासना सरासर ढकोसला है | इनमें ईमानदारी का अभाव है | इन दुखोपासकों के अपने जीवन भव्य और सुरक्षित हैं; मुसीबतों से जूझने वाले लोग हास्य साहित्यकार बन जाते हैं | इसके लिए भी हमारी भाषा में अनेक मिसालें हैं ..हास्य सम्राट "संजयन" इसका ज्वलंत उदहारण हैं | लेकिन आधुनिक साहित्यकारों के आचरण बिलकुल उलटे हैं |



प्र : रचना में निमग्न होने का समय आत्मविस्मृति का है या आत्मजागृति का ?



उ : रचना में निमग्न होते समय लेखक अधिक जागृत होता है | अपने अनुभवों भावों और विचारों को अभिव्यक्ति देते समय साहित्यकार का मन एक नए तथा विचित्र मोड़ पर आता है और वह उसमें तल्लीन होता है |



प्र : आपकी कुछ रचनाओं पर फ़िल्में बनी हैं | फ़िल्मी कृत होते समय क्या साहित्यिक रचना का गुण नष्ट हो जाता है ?



उ : मेरी चार रचनाएँ अब तक फ़िल्मीकृत हो चुकी हैं | साहित्य रचना जब फ़िल्मीकृत होती हैं तो उसका चैतन्य घट जाता है जैसा मेरा अनुभव है | एक उपन्यास पढ़ते समय पाठक के ह्रदय में उसकी घटनाएँ पात्र आदि सब मिल कर एक फिल्म यों हीं तैयार हो जाती है | उसकी सी तन्मयता और सहजता वास्तविक फिल्म में नहीं दिखाई पड़ती |



प्र : भारत के विभिन्न भाषा भाषी साहित्यकार आपस में मिल बैठ सकें और एक दूसरे की रचनाओं से अवगत हो सकें इसके लिए आप क्या कदम उठाना आवश्यक समझते हैं ?



उ : केंद्रीय साहित्य अकादमी की कार्यकारिणी समिति के सदस्य की हैसियत से मैंने इसके सम्बन्ध में काफी सोचा है | विदेश के साहित्यकारों से हमारा निकट संपर्क है लेकिन इधर के पड़ोसी प्रान्तों के साहित्यकार एक दूसरे से दूर हैं अजनबी हैं | सांस्कृतिक आदान-प्रदान की सहायता से इसको सुलझाया जा सकता है |



प्र : अन्य भारतीय भाषाओँ से अनूदित रचनाएँ आपनी मातृभाषा में पढ़ कर भारतीय संस्कृति की विविधता के सम्बन्ध में क्या आप नयी जानकारी अर्जित कर सकते हैं ?



उ : अन्य राष्ट्रों से अलग भारत की एक खूबी है | उसकी अखंड सांस्कृतिक चेतना ही उसकी विशेषता है | चीन भी इस ढंग का एक देश बताया जाता है लेकिन हम उससे अनभिज्ञ हैं | सांस्कृतिक श्रृंखला बहुत बिखरी पड़ी है | हमारी वह प्राचीन परंपरा और विरासत आम संपत्ति है | यह किसी एक भाषा की बपौती नहीं है |



प्र : भारत जैसे बहु भाषी राष्ट्र में अनुवाद को सांस्कृतिक समन्वय का पुल बनाने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है ?



उ : आदान-प्रदान योजना को व्यापक बनाना अनिवार्य है | परस्पर सम्बन्ध और संपर्क न रखने वाली भाषाओँ को निकट लाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए | सांस्कृतिक विनिमय को बढ़ावा देना समय की मांग है | उत्तर भारत के साहित्य प्रेमियों को दक्षिण भारत में आकर यहाँ की भाषा और साहित्यिक गतिविधियों को पढने के लिए अवसर प्रदान किया जाये | दक्षिण भारत के साहित्य प्रेमी दल उत्तर भेजें जाएँ | भारतीय सन्दर्भ में अनुवाद की मुख्य कड़ी के रूप में अंग्रेजी की अपेक्षा हिंदी को स्वीकार करना अधिक उचित होगा | कारण यह है कि इस देश की आम संस्कृति से हिंदी का निकट सम्बन्ध है | अंग्रेजी का महत्व इस दिशा में गौण है | सांस्कृतिक सादृश्य अनुवाद के सम्बन्ध में एक अनुपेक्षनीय पहलू है | इस दृष्टि से बहुभाषी राष्ट्र भारत में अनुवाद की आम कड़ी के रूप में हिंदी को मंजूर करना उचित और उपयुक्त होगा |



प्र : कहानी और उपन्यास दोनों आपकी प्रिय विधाएं हैं | एक साहित्यिक विधा के रूप में उपन्यास की विशिष्टता पर आप क्या सोचते हैं ?



उ : उपन्यास सारी सुख सुविधाओं से सुसज्जित एक मकान है तो कहानी एक ऐसा कमरा है जहाँ केवल जरूरत की सुविधाएँ प्राप्त हैं | उपन्यास की खासियत यह है कि वह मानव जीवन कि समस्याओं को एक विशाल फलक पर अवतरित कर सकता है | कहानी में एक भाव या एक निमिष के अनुभवों को ही समेटना संभव होगा |



प्र : क्या सिर्फ अनुभवों का आकलन काफी है ? उसमें जीवन दर्शन का प्रस्फुटन भी आवश्यक है न ?



उ : ठीक है; दार्शनिक संस्पर्श कला के लिए अनिवार्य है | मानव प्रेम और ईमानदारी उस दर्शन के आधारभूत तत्व हैं |



प्र : ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त उपन्यास के परिप्रेक्ष्य में इसका स्पष्टीकरण दीजिये |



उ : अपने गाँव के लोगों की सहानुभूति के साथ मैंने इस उपन्यास में स्थान दिया है | हर दुष्ट और भ्रष्ट मनुष्य के चरित्र में भलाई या उज्जवलता के कुछ अंश विद्यमान होंगे | उन अंशों के पारखी बनने पर उन लोगों के प्रति हमारे मन में घृणा का भाव उत्पन्न नहीं होगा |



प्र : आपके अन्य उपन्यासों की तुलना में इस उपन्यास के प्रति आपको बेहद प्यार है | मैं इसकी पार्श्वभूमि जानने को उत्सुक हूँ |



उ : मेरे अन्य उपन्यासों में परानुभवों को ज्यादा महत्व मिला है | यह उपन्यास मेरे अपने अपूर्व अनुभवों का खजाना है | इसमें आत्मानुभवों को महत्व मिला है | मेरे खून और आंसू की बूँदें इसमें घुल मिल गयी हैं | मेरे जीवन के कौमार्य काल के अनुभव तब मेरी ओर से अर्जित विचार तत्व केवल सत्य की खोज में डूबे रहे मेरे श्रद्धेय पिता अपनी रुग्णावस्था में भी मुझे धर्मोपदेश देने वाले बड़े भाई इन सब की स्मृतियाँ इस उपन्यास में संजोयी गयी हैं | ईमानदारी इस कृति की अंतर्धारा है | इसमें मिलावट नहीं है | इस नाते यह उपन्यास मुझे बहुत प्यारा है |



प्र : हर रचना के पीछे एक सुदूर की प्रेरणा है और एक तत्काल प्रेरणा है | इस उपन्यास की रचना की तात्कालिक प्रेरणा कौन सी है ?



उ : मैं आपसे सहमत हूँ | एक बार "कुम्कुमम" के संपादक ने धारावाहिक रूप में प्रकाशित करने के लिए एक उपन्यास का निवेदन किया | निवेदन मैं टाल नहीं सका | लम्बे अरसे से मन में उभरते विचार को अमल में लाकर मैंने उपन्यास लिख देने का बीड़ा उठाया | यही उपन्यास के जन्म की पार्श्वभूमि है | ८० हफ्ते में वह समाप्त हो गया | बगैर किसी कठिनाई के सहज और सुगम ढंग से मैं इसकी रचना कर सका | मुझे अपने जीवन की खट्टी मीठी स्मृतियों को क्रम बद्द बनाना था | इसके ९० प्रतिशत पात्र और घटनाएँ यथार्थ हैं | टूटी कड़ियों को जोड़ने के लिए कला का आसरा लेना पड़ा है |



प्र : लगभग तीन दशक पहले आपने लेखन से रोटी कमाने का निश्चय किया था | क्या आपको इस निर्णय पर कभी पछताना पड़ा ?



उ : यह मेरे लिए अभिमान की बात है कि मैं उस निश्चय में सफल बन पाया | सिर्फ लेखन से रोटी कमाने का निर्णय तब जोखिम था | टेक्सटाइल कमिश्नर्स ऑफिस बम्बई में अंतिम बार मैंने काम किया था | तब मैंने निर्णय लिया था कि मैं भविष्य में किसी के अधीन काम नहीं करूँगा | मैंने उस व्रत का पालन किया | निष्ठा पूर्वक साहित्यिक जीवन से ही मुझे आज यह गौरव गरिमा मिली है | अपनी आज़ादी को मैंने अक्षुण बनाये रखा है | भले ही मेरी अपनी राजनीतिक राय है तथापि मैं किसी भी राजनीतिक दल का सदस्य नहीं बना | मैं सबसे पहले लेखक हूँ और मेरे लिए लेखकीय आज़ादी परम आवश्यक है |


यह साक्षात्कार डॉ आरसु (कालीकट विश्वविद्यालय) द्वारा लिया गया है.
इसे यहाँ राजपाल प्रकाशन से साभार प्रस्तुत किया जा रहा है.
Viewing all 165 articles
Browse latest View live